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Showing posts from September, 2022

सुनो! सुनना जरूर (कविता संग्रह)

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सुनो! सुनना जरूर    एपिसोड-63 सुनो.! तुम्हीं से कह रहा सुना है कभी, झरने की आवाज, पत्तों की खड़खड़ाहट, पक्षियों की चहचहाहट, सुनना कभी ये भी कुछ कहते हैं ऐसे सुनना जैसे फिर न सुनना पड़े डूब कर सुनना उन तरंगों में सुनना ऐसे जैसे खो जाना स्वरों में की वो तुमसे ही कुछ कह रहे हों हाँ, तुमसे हीं तुम सुनोगे उसकी वेदना उसकी छटपटाहट उसकी उद्विग्नता की जैसे कहीं  स्वयं को समर्पित करने की चाह भरी हो उसमें उसके रोम-रोम जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहे हों किसी का अंश उसमें रह गया हो जैसे कोई पुकारता जैसे उसी अंतहीन तरंगों  के उद्गम स्थल को ढूंढती कह रही हो, झरने पत्ते पक्षी की अकुलाहट जैसे एक नाद में हीं सबकुछ कह देना चाह रही हो, सुनना, जरूर सुनना जब सुनोगे (डूबकर) तो जानोगे  हर कोई किसी को पाने के लिए ही अनवरत अनहद अविराम चल रहा है की अगले कदम वो मिल जाएगा जिसकी आश है। सुनो.! तुम्हीं से कह रहा जरूर सुनना जो कुछ सुनना उस अनकहे को मुझसे कहना की मैं समझ दूँ उन स्वरों को उन तरंगों को क्योंकि… मैं सुनता हूँ अक्सर सुनता हूँ जब भी अकेला तुम्हें सोचता हूँ सोचता हूँ, मेरा कह...

करमुक्त साहित्य

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करमुक्त साहित्य : एपिसोड- 62 साम्प्रदायिक, धार्मिक व जातिगत कट्टर उन्माद के कारण लोग अपने मूल अधिकार, कर्तव्य व मानवीय गुणों को भूलते जा रहे हैं जोकि मानव-सभ्यता की पीढ़ी-दर-पीढ़ी गतिशीलता व अनवरतता के लिए भयावह हैं। मुझे नहीं पता कि आज लोग सही-गलत में फर्क करना भूलते जा रहे हैं या फर्क करना नहीं चाहते या फिर फर्क करने से डरते हैं। सबसे बड़ी बिडम्बना आज के साहित्य जगत के नवोदित साहित्यकारों की है, उनकी कलम रचना से पहले सामुदायिक रूप से अपना एक सामाजिक पक्ष निर्धारित कर लेते हैं, जिससे उनकी लेखनी सर्वस्वीकार्य नही रह जाती, पढ़कर एक पक्ष खुश होता है तो दूसरा पक्ष आहत। वो ऐसा क्यों करते हैं, ऐसा करने पर उनके किस हितों की पूर्ति होती है.. वगैरह..वगैरह...लेकिन जो भी हो,सामाजिक समरसता सूखती जा रही है। हालाँकि हमारे साहित्यिक जगत के पूर्वजों की रचना आज भी बहुत अच्छी स्थिति में उपलब्ध है,जो आज भी मानवीय मूल्यों का संवर्धन करते हैं, जिसे पढ़कर लोगों में वर्तमान परिदृश्य पर चिंतन व सही राह समायोजन की वृत्ति जीवंत होती हैं। लेकिन व्यवसायिक हितों के कारण आमजन तक ऐसे साहित्यिक कृतियों ...

समाज और सवाल : नारी अस्मिता

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समाज और सवाल : नारी अस्मिता ,  एपिसोड- 61 आये दिनों हर रोज महिलाओं के शोषण व दुष्कर्म की घटनाओं ने मानवता व जीने के लिए जरूरी आदर्शों को ताड़-ताड़ कर रही हैं। इस घटनाओं में नृशंसता की वृत्ति बढ़ती जा रही है। शोषित और शोषक के उम्र को लेकर हमारा समाज विह्वल है।  ऐसे में हमे समाजिक व्यवस्था के पुनर्मूल्यांकन पर विस्तृत सामाजिक सर्वेक्षण की जरूरत है। कुछ सवाल हैं मेरे मन मे जो हर समाज में जाकर वहां रह रहे लोगों से उनके उत्तर जानने चाहिए जिससे तथाकथित समाज की दिशा और दशा का आकलन हो सके; इतनी कम उम्र में ऐसे विभत्स वारदात को अंजाम देने की सोच का पोषण कहाँ से मिल रहा है.?? इस घृणित अपराध के अपराधियों को तो त्वरित सजा मिले हीं,साथ ही सम्बंधित समाज की भी सोशल ऑडिट हो कि; *वो अपने बच्चों का पोषण कैसे करते हैं? *समाज के पुरुष समाज मे चौक-चौराहे पर, गली मोहल्ले में संवाद की क्या शैली है? *समाज में युवा की गतिविधि कैसी है, उनकी रुचि किस कार्यों में है? *मोबाइल नेटवर्किंग साइट्स का उपयोग समाज में किस प्रकार हो रहा है? *लोग अपने बच्चों के गतिविधियों का मूल्यांकन कैसे करते हैं? *समाज के पुरुष (ब...

आदर्शों का आत्मबोध

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आदर्शों का आत्मबोध ,  एपिसोड: 60 कभी-कभी मेरे मन मे आता है कि वर्तमान में भौतिक विकास के सभी कार्य रोक देने चाहिए जैसे सड़क निर्माण, नए पुल-हवाई अड्डे, प्राकृतिक तेल सोधन/भूमि उत्खनन व अन्य और इसमें लगे लोगों को समाज मे व्याप्त विकृतियों जैसे जलवायु परिवर्तन, नैतिकता, मानव-आदर्शों के प्रति आत्मबोध के प्रति जागरूक करने में लगा दें और सरकार व जुड़ी संस्थाएं केवल लोकहित हेतु बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा व सुरक्षा के लिए काम करें। क्योंकि ऐसा महसूस हो रहा है कि आजादी के बाद लगातार 75 वर्षों से विकास के काम करते-करते लगभग हर संस्थायें थक गई हों और जुड़े लोगों की मति मारी गई है। ऐसी परिस्थितियों में वैसे लोग,जिनका मन-कर्म-वचन दिन-रात जनहित के प्रति ओतप्रोत होता है,वो बड़ी असमंजस के साथ जीते हैं। जो लोग समाज व पारिस्थितिकी की जटिलताओं को समझते हैं, वे अपने सम्बोधन,लेखन व अन्य गतिविधियों से समाज व सरकार को आगाह करते रहते हैं, पर सिस्टम सुधरता ही नहीं।

टेलीविजन : एक विकृति

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अभ्युदय से चर्मोत्कर्ष,   एपिसोड–65 लोग यदि 'टेलीविजन' देखना बन्द कर दें तो मुझे लगता है कि वर्तमान समाज में जो भयावह स्थिति बनी है, उस(भयावहता: राजनीतिक, सामाजिक व अन्य)में तत्क्षण आधे की गिरावट आएगी Tv सभी समाजिक विकृतियों की जड़ बनती जा रही है। यह घर-घर―जन-जन में स्वयं व परस्पर संवाद-विमर्श की परम्परा, आकलन, दूरदर्शिता, खुद में निर्णय लेने की क्षमता आदि सामाजिक का गला घोंट रही है, बदले में यह अकेलापन, अति-अनुकरण की आदत, अनेक बीमारियों को आमंत्रित करता है। Tv से मनोरंजन कम, जन-जन में सामाजिक/पारिवारिक विकृति ज्यादा आ रही है। आज हर कोई समय की कमी से जूझ रहा है, ऐसे में tv रोज हर किसी का कम-से-कम 3-4 घण्टे बर्बाद कर रहा है। #स्मार्टफोन टीवी का हीं चलंत स्वरूप है। ऑनलाइन (इलेक्ट्रॉनिक) सूचना की विश्वसनीयता भी संदेह के दायरे में रहती है, क्योंकि हर-कोई किसी खास एजेंडे के लिए कार्य कर रहा है। सूचना के लिए समाचार पत्र   व रेडिये अभी भी विश्वसनीय हैं। आज समाजिक परिदृश्य इतनी बदतर हो चुकी है की यदि हम सोचें कि केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था, कार्यपालिका व न्यायपालिका निय...