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#खतों_का_सिलसिला... से अमृता का एक खत इमरोज़ के नाम...



प्यार के उन पथिकों के लिए.....
जिन्होंने राह के काँटे नहीं गिने.....
मंज़िल की परवाह नहीं की.....
किया तो सिर्फ प्यार......जिया तो सिर्फ प्यार......


इमरोज़ तुम मेरी ज़िंदगी की शाम में क्यों मिले, दोपहर में क्यों नहीं'

अमृता प्रीतम की प्रेम कहानी

अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में अपने और इमरोज़ के बीच के आत्मिक रिश्तों को भी  बेहतरीन ढंग से क़लमबंद किया। इस किताब में अमृता ने अपनी ज़िंदगी कई परतों को खोलने की कोशिश की है। 

'रसीदी टिकट' में अमृता ख़ुद से जुड़े हुए कई ब्योरे यहां खुलकर बताती हैं। अमृता कई बार इमरोज़ से कहतीं- "अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते।"

अमृता इमरोज़ से अक्सर इस तरह के सवाल पूछती थीं, क्योंकि इमरोज़ अमृता की ज़िंदगी में बहुत देर से आये थे। मगर वो दोनों एक ही घर में एक ही छत के नीचे दो अलग-अलग कमरे में रहते थे।

अमृता के संग रहने के लिए इमरोज़ ने उनसे कहा था, इस पर अमृता ने इमरोज़ से कहा कि "पूरी दुनिया घूमकर आओ फिर भी तुम्हें लगे कि साथ रहना है तो मैं यहीं तुम्हारा इंतज़ार करती मिलूंगी....


उस समय इमरोज़ ने अपने कमरे के सात चक्कर लगाने के बाद उन्होंने अमृता से कहा कि घूम लिया दुनिया, मुझे अभी भी तुम्हारे ही साथ रहना है।"

अमृता ने इमरोज़ का ज़िक्र करते हुए कहा कि जब मैं रात को शांति में लिखती थीं, तब धीरे से इमरोज़ चाय रख जाते थे। 

ये सिलसिला सालों साल चला। इमरोज़ जब भी अमृता को स्कूटर पर ले जाते तो अमृता अक्सर उंगलियोंं से हमेशा उनकी पीठ पर कुछ लिखती रहती थीं। इमरोज़ भी इस बात से अच्छे से वाक़िफ़ थे कि उनकी पीठ पर वो जो शब्द लिख रहीं हैं वो किसी का नाम हैं।

अमृता को जब राज्यसभा का मनोनीत सदस्य बनाया गया तो इमरोज़ उनके साथ संसद भवन जाते और घंटों बाहर बैठ कर अमृता के लौटने का इंतज़ार करते। अक्सर वहीं पर मौजूद लोग इमरोज़ को ड्राइवर मान लेते।
इमरोज़ ने भी अमृता के लिए अपने करियर के साथ समझौता किया। उन्हें बहुत जगह अच्छी नौकरी के अवसर मिले मगर अमृता की ख़ातिर उन्होंने ये अवसर ठुकरा दिये। 

अमृता प्रीतम की एक गजल ;

क़लम ने आज गीतों का क़ाफ़िया तोड़ दिया
मेरा इश्क़ यह किस मुकाम पर आ गया है

देख नज़र वाले, तेरे सामने बैठी हूं
मेरे हाथ से हिज्र का कांटा निकाल दे

जिसने अंधेरे के अलावा कभी कुछ नहीं बुना
वह मुहब्बत आज किरणें बुनकर दे गयी

उठो, अपने घड़े से पानी का एक कटोरा दो
राह के हादसे मैं इस पानी से धो लूंगी...



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