#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड--11

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समान शिक्षा:-समरस समाज की जननी
#आजादी_के_इकहत्तर_साल

मनुष्य की मानसिक शक्ति के विस्तार हेतु शिक्षा एक अनिवार्य प्रक्रिया है स्त्री हो या पुरुष किसी को शिक्षा से वंचित रखना उसकी मानसिक क्षमता विकसित होने से रोक देना है। पूर्ण व सुचारू शिक्षा न मिलने से महिला या पुरुष बाहर के उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों का भार उठाने में असमर्थ होते हैं। शिक्षा के माध्यम से जो ज्ञान, कौशल, जीवनमूल्य और दृष्टिकोण हासिल किया जाता है उससे वह स्वजीवन व अपने समाज  में मनचाही गुणवत्ता ला सकता है और आने वाली पीढ़ियों का पथ प्रदर्शन प्रभावशाली ढंग से कर सकता है क्योंकि बच्चे किसी भी राष्ट्र के भावी जीवन की आधारशिला होते हैं।

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【 मगर ध्यान रहे, विवेकहीन शिक्षा/ज्ञान मनुष्य को पतन की ओर अग्रसर करती है... अतः हम विवेकपूर्ण व मानवीय मूल्यों से युक्त शिक्षा की बात कर रहे हैं क्योंकि जब हम अपने समाज में अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि केवल साक्षर भी अपने समाज के असहायों के दुख दर्द को महशुस कर यथा सामर्थ्य उनका निदान करते हैं वहीं समाज के सम्भ्रान्त अपने को उच्च शिक्षित डिग्री से उपाधित अपनी आंखें मूंद कर चलते हैं व परमार्थ तो दूर की बात, अपने व्यंगपूर्ण तिरस्कृत शब्दों से आर्तजनों की पीड़ा को बढ़ाने का काम करते हैं। 】
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इलाहाबाद हाई कोर्ट कोर्ट ने अगस्त 2015 में ऐतिहासिक फैसला देते हुए निर्देश दिया था कि सरकार सुनिश्चित करें कि राजकीय खजाने या सार्वजनिक निधि से किसी तरह की अतिरिक्त आमदनी लाभ या वेतन पाने वाले कर्मचारी, स्थानीय जनप्रतिनिधियों जिसमें सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री को भी शामिल किया गया, न्यायिक कर्मचारी और बाकी सभी, प्राथमिक शिक्षा पाने की उम्र के अपने बच्चे को सरकारी बेसिक शिक्षा बोर्ड द्वारा चलाए जा रहे प्राथमिक स्कूलों में ही भेजेंगे। अदालत ने सरकार को लागू करने का निर्देश दिया था और यह भी कहा कि शर्तों को ना मानने वाले को सजा दी जाए। शिक्षा के बुनियाद को मजबूत करने और समाज में संबंध स्थापित करने का यह ऐतिहासिक फैसला था। फैसला आज तक लागू नहीं किया गया लेकिन इसने इस बात को उठाया कि क्या "सबको समान शिक्षा" के बिना हम अपने समाज को समरस साम्यवादी बना सकते हैं ??

वास्तविकता तो यह है कि आजादी के 71 वर्षों के बाद भी शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने की दिशा में ठोस कदम उठाए ही नहीं गए। कोठारी कमीशन द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में जीडीपी का 6% खर्च किए जाने का परामर्श आज तक लागू नहीं हुआ। आज सरकारी स्कूलों की स्थिति भी आम लोगों के जैसी हीं है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में करीब सवा करोड़ बच्चे बाल मजदूरी करते हैं व वहीं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार तो हमारे देश में 5 करोड़ बच्चे स्कूल से बाहर है, दूसरी ओर गाँवों में बच्चे सातवीं-आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं। जबकि लोकतांत्रिक सरकार व नौकरशाही व्यवस्था शिक्षा की इस दुर्गति के लिए अभिभावकों को दोषी मानती है जबकि हम  सामाजिक शिक्षाविद इस अप्रत्याशित विषमता के लिए  सरकार को जिम्मेदार मानते  हैं क्योंकि इनकी अदूरदर्शी, दुराग्रही सोच  के परिणामस्वरूप गलतियों की वजह से बच्चे स्कूल छोड़ने को मजबूर होते हैं। हमारा मानना है कि हमारे स्कूल में ही इतनी खामियां हैं कि बच्चे मनोवैज्ञानिक रुप से स्कूल में टिक हीं नहीं पाते। खासतौर पर ग्रामीण भारत के सुदूर अंचल विशेष रूप से प्रभावित होते हैं जहां एक तो अच्छी स्कूल नहीं हैं, हैं तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षक नहीं हैं, विषंगतियाँ इतनी की इन स्कूलों में शिक्षकों की संख्या इतनी कम है कि की स्कूल तो 1-2 शिक्षकों के भरोसे हैं अब वो स्कूल व्यवस्था को देखें कि पठन पाठन व्यवस्था को देखें कि...!! मुझे बचपन की कहानी याद आती है कि हमारे गाँव मे एक प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय था, वहां स्कूलों की संख्या मात्र 1-2 हीं थी, एक चपरासी था, वही स्कूल में सबकुछ करते थे और तो और सरकार के विभिन्न योजनाओं जैसे पोलियो उन्मूलन, जनसंख्या गणना, चुनाव इत्यादि में भी इनकी ड्यूटी लगती थी , सब मिलाकर स्थिति चौपठ हीं थी, इन सबके बावजुद इस बच्चों को बड़े होकर प्रतियोगिता परीक्षाओं में शहरी व सुविधाओं से युक्त अभ्यर्थियों के साथ एकसाथ उतरना पड़ता था जिससे इनके सफलता का प्रतिसत नगण्य मतलब नहीं के बराबर था। स्थिति आज भी वहीं की वहीं है, हल हिं में विद्युतीकरण का काम पूरा हुआ है, बच्चे को अभी अभी डिबिया-लालटेन में पढ़ने से मुक्ति मिली है अब वो बल्व में पढ़ने लगे हैं, मगर सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधारों की गति इतनी धीमी है कि इनके जीर्णोद्धार में अभी भी 15-20 वर्षों का समय लग जायेगा..!!!

आज उदारीकरण ने शिक्षा का बहुत बड़ा बाजार खड़ा कर दिया है, कहा जा रहा है कि जिस के पास जितना पैसा उसे उतनी शिक्षा मिलेगी। कोई भी निम्न आय वर्ग का परिवार किसी निजी स्कूल में अपने बच्चे की पढ़ाई का खर्च वहन कर ही नहीं सकता। जब 10वीं या 12वीं के बाद कोचिंग ही जाना है तो फिर गुणवत्ता कैसी..?? शिक्षा का व्यवसायीकरण आम नागरिकों को शिक्षा से बाहर कर रहा है ऐसे में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उम्मीद देता है कि इसे ना सिर्फ प्राथमिक/माध्यमिक बल्कि उच्च शिक्षा में भी पूरे देश में लागू किया जाना चाहिए।

राष्ट्रकवि दिनकर जी लिखते हैं,
"नहीं एक अवलम्ब जगत का लाभ पुण्यव्रती की
    तिमिर व्यूह में फंसी किरण भी आशा है धरती की"

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद -रामधारी सिंह दिनकर

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, 
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! 
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, 
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। 

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? 
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते; 
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी 
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। 

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो? 
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है। 

मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली, 
देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू? 
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी? 
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते, 
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ, 
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की, 
इस तरह दीवार फ़ौलादी उठाती हूँ। 

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी 
कल्पना की जीभ में भी धार होती है, 
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल, 
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है। 

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे, 
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्न वालों को, 
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"

वन्दे मातरम, सत्यमेव जयते
अक्षय आनन्द श्री, बिहार

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