#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड_21

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【 दिनांक 29.01.2020 को एडिट किया गया है 】


नारी गरिमा और युवा उत्तरदायित्व


सन् 2012 , उस समय मैं एम. आर. एम. सी. गुलबर्गा के द्वितीय वर्ष का छात्र था। तब मेरे पास सोनी का एक लेपटॉप हुआ करता था, इंटरनेट की स्थिति तब उतनी अच्छी नहीं थी। इंटरनेट का उपयोग करने के लिए कॉलेज के लाइब्रेरी में क्लास आवर के बाद जाना होता था। खबरों के लिए मुख्यतः समाचार पत्रों पर हीं निर्भर होना पड़ता था, आज की तरह इंटरनेट की स्थिति तब अच्छी नहीं थी। सुबह सुबह समाचार पत्र में दिल्ली की अमानवीय घटना के बारे में विस्तार से पढ़ा की 16 दिसम्बर की रात, दिल्ली की कपकपाती ठण्ड मे छः हवसी दरिंदों ने एक छात्र के साथ हैवानियत की सारी हदें पार कर दी। मानवता के सीने को विदीर्ण करती हुई एक खौफनाक मंजर, चलती बस में हवसी दरिंदों ने एक राह चलती पैरामेडिकल की छात्रा से सामूहिक दुष्कर्म किया। हमलोगों ने सड़कों पर दोषियों को अविलम्ब फाँसी देने के लिए रैलियां की, जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंपे। महीनों तक घटना को याद कर रूह कांप जाती थी। पर हुआ वही जो अन्य सभी मामले में न्यायपालिका में होती है , केस वर्षों चली, लोअर कोर्ट, हाई कोर्ट फिर सुप्रीम कोर्ट . . .  

सात वर्षों के पीड़िता के माता-पिता के संघर्षों के उपरांत बीते 7 जनवरी को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने फांसी की सजा को बरकरार रखते हुए बचे चारों अभियुक्तों ( अन्य में एक नाबालिक जिसकी पूर्व में रिहाई हुई, एक नए जेल में आत्महत्या कर ली ) को 22 जनवरी को सुबह 7 बजे तिहाड़ जेल में फांसी के लिए डेथ वारेंट जारी कर दी। कोर्ट ने दोषियों को सभी कानूनी विकल्पों के लिए 14 दिन का वक्त भी दिया, जबकि देश की सर्वोच्च अदालत ने सभी दोषियों की पुनर्विचार याचिका पहले हीं खारिज कर दी थी। एक - एक कर अभियुक्तों द्वारा क्यूरेटिव पिटीशन दी जा रही है, राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दी जा रही है, राष्ट्रपति के द्वारा दया याचिका खारिज होने पर राष्ट्रपति के दया याचिका खारिज किये जाने को सुप्रीम कोर्ट में समीक्षा भी कराई जा रही है . . .  इस बीच दिल्ली विधानसभा सभा चुनाव के कारण मुख्य राजनैतिक दलों से इस मुद्दे ( फाँसी में हुई देरी ) पर एक दूसरे को जिम्मेदार बताकर अपनी राजनीतिक रोटी भी सेंकी। इस परिक्रिया में दोषियों को फाँसी दिए जाने की पहली तारीख 22 जनवरी को टाला गया  अब फिर नई तिथि आगामी एक फरवरी को सुबह छः बजे तय हुई है।

मगर कुछ दोषियों के कानूनी विकल्प अभी भी बचे हैं, जिसका वे उपयोग भी कर रहे हैं, इस कारण लगातार फाँसी की तारीख फिर आगे बढ़ने की पूरी संभावना नजर आती है।

उपरोक्त घटनाओं के बीच एक महिला ( जो कि सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता कही जाती हैं ) ने पीड़ित पक्ष की पीड़ा को दरकिनार करते हुए फाँसी की सजा पाए सभी हवसी दरिंदों के प्रति अति उदारता दिखाते हुए पीड़िता की माँ को माफ करने की सलाह भी दी . . . हद्द हो गई !!!!

कुल मिलाकर कहा जाए तो सभी दोषियों को बचने के  सभी कानूनी दांव- पेंच आजमाने के मौके दिए गए, सामाजिक स्तर पर भी माफी की ( वो भी एक महिला के द्वारा...) पहल की गई, यानी कई मौके बचने के दिये जा रहे हैं . . . 

परन्तु इन हवसी दरिंदों ने पीड़िता को "एक मौका" नहीं दिया . . . 16 दिसम्बर 2012 की रात, इन दरिंदों से पीड़िता ने हर स्वास पर न जाने कितने अनुनय-विनय की होंगीं...
..हाथ जोड़ती हूँ
बहन जैसी हूँ...
...पैर पकड़ती हूँ
और न जाने क्या-क्या...
...अंदाजा लगाना मुश्किल है
सही हीं तो कहा होगा की "बहन जैसी हूँ" क्योंकि पीड़िता और दरिंदों के बहन की शारीरिक संरचना तो समान हीं है. . . फिर भी इस वहसी दरिंदों ने हैवानियत की सारी हदें पार कर दी, कोई भी मौका बचने का नहीं दिया. . .

उपरोक्त न्यायिक उदारता, अधिकारों की दुहाई आदि दोषियों  को क्यूँ . . ..??

क्या ऐसे दरिंदों के न्यायिक अधिकारों की बात करना मानवता को तमाचा मारना नहीं होगा . . ..??

क्या ऐसे कुपात्रों के लिए माफ करने की सलाह देना इंसानियत के मुँह पर थूकना नहीं कहा जायेगा . . ..??

क्या दोषियों के फाँसी में हो रही देरी न्यायपालिका पर अट्टहास नहीं कर रही . . ..??

ऐसे न्यायिक उदारता से अमानवीय घटनाओं के प्रति क्या समाज मे भय का माहौल बन पाएगा . . .???

इन हवसी दरिंदों को तो  सौ बार भी फाँसी परे तो दण्ड इसके गुनाह से बहुत कम है. . .

स्थिति को देखकर तो ऐसा लगता है कि हाल की हैदराबाद की घटना में जिस प्रकार मामले के सभी दोषियों को इनकाउंटर कर दिया गया, काफी हद तक सही किया।



हमारा वेद शास्त्र कहता है
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।
~अथर्ववेद


यह सोच हमें बहुत दुख होता है कि { एक नजर भारतीय इतिहास के पन्नों में देखें तो } न जाने कितने हीं बार विदेशियों ने आक्रमण किये हमारे देश पर, उतना पतन नहीं हुआ जितना पतन पिछले 70 सालों में हमारी शिक्षा व संस्कारों में हुआ। पता नहीं हम सृजनात्मक या विनाशकारी प्रगतिशील हैं। किसी राष्ट्र के प्रगति/विकास/सभ्यता का मापदंड इससे होता है कि उस राष्ट्र में नारी का कितना सम्मान होता है। जिस राष्ट्र को हमारे यशस्वी मनीषियों ने "माँ" 【 भारत माता 】 की संज्ञा दी थी, उस राष्ट्र में नारी सम्मान के प्रति इतनी उदासीनता !!




राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है 2017 में 32.5 हजार से अधिक मामले धारा 375-376 (दुष्कर्म) के मामले दर्ज हुए और वहीं राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) का कहना है की  यौन-हिंसा की 99% घटनाओं की शिकायत पुलिस में होती ही नहीं है। वर्ष 2017 में बलात्कार से लंबित मामलों के न्यायिक निपटारे की दर 32% से कुछ अधिक रही।कमोबेश यही स्थिति प्रत्येक वर्ष की है।



इसमें कोई दो मत नहीं कि यदा-कदा नारी-सशक्तिकरण के संदर्भ  में मानवता को शर्मसार कर देने वाली यौन- हिंसा के रोकने की चर्चा सामाजिक, प्रसाशनिक व विधायिक स्तर पर होती रहती है। कोई अपराधियों को चौराहे पर फाँसी देने या पीटकर मार देने की मांग की जाती है, तो कोई महिलाओं पर कमोबेश पाबंदी की सलाह देता है,कुछ लोग नशे, फोन, कपड़े आदि पर भी दोष मढ़ते हैं। ऐसी बातें समाज के न केवल पढ़े-लिखे/ अनुभवी अनपढ़ हीं करते हैं बल्कि ये बातें राष्ट्र की एकता और अखंडता का नेतृत्व कर रहे भूतपूर्व/पूर्व/ वर्तमान सांसदों, विधायकों, नेताओं, व पुलिसकर्मियों के मुँह से भी सुनाई देती है।ऐसा हर बार होता है, जब किसी नृशंस अपराध पर देश क्रोधित हो उठता है। आज अपवाद स्वरूप हीं कोई ऐसा दिन हो, जिस दिन मीडिया (चाहे मीडिया का कोई स्वरूप क्यों न हो - ऑडियो, विजुअल या प्रिंट मीडिया) में दुष्कर्म/ सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएं सुनने, देखने और पड़ने को न मिले। 
अतः इसमें कोई संशय नहीं, लगातार होती घटनाओं को देखते हुए बलात्कार के विरुद्ध व्याप्त रोष एवं क्षोभ स्वाभाविक है, लेकिन इस संदर्भ में समाज के बुद्धिजीवी (पढ़ेलिखे/अनुभवी) महिला- पुरुषों, जनप्रतिनिधियों, प्रशासनिक अधिकारियों को ठहरकर इस आपराधिक समस्या पर परस्पर विचार विमर्श करने की आवश्यकता है जिससे जनमानस की मानसिकता बदले और जाँच व न्याय प्रक्रिया की खामियों को आवश्यकतानुसार तुरन्त ठीक किया जा सके। जिससे समाज मे महिलाओं के प्रति नकारात्मक और आपराधिक सोच में बदलाव एक सामाजिक प्रक्रिया बने क्योंकि न तो महिलाओं की आवाजाही पर अंकुश लगाकर या उनके भीतर अपराध भावना भर देने से समाधान हो सकता है।




लेकिन आश्चर्य और बड़े हीं दुख की बात है कि इस संदर्भ में अभी तक कोई ठोस सुधार देखने को नहीं मिल रहे जो हम पुरुष समाज के लिए एक कलंक की बात है। दिन-ब-दिन स्थितियों में सुधार की जगह क्रूरता बढ़ती हीं जा रही है। रोज प्रिंट मीडिया व अन्य माध्यम से मानवता को शर्मसार करती सामूहिक दुष्कर्म की विभत्स घटनाएं मानव समाज को कलंकित कर रही हैं, इसे रोकने के लिए अविलम्ब प्रशासनिक व न्यायिक शक्रियता को तीव्र करने होंगे, दोषियों को अविलंब कठोरतम दण्डित सुनिश्चित किये जायें। दोष प्रमाणित होते हैं दोषियों को अविलम्ब फाँसी दी जाए।

दिनकर जी लिखते हैं ;
कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का
दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;
"मतिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक
शस्त्र हीं है ? " पूछा था कोमलमना वाम ने।
नहीं प्रिये, "सुधार  मनुष्य सकता है तप,
त्याग से भी," उत्तर दिया था घनश्याम ने,
" तप का परन्तु, बस चलता नहीं सदैव
पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने ।"

इस संदर्भ में तुलसीदासजी ने भी रामचरितमानस कृति में श्रीराम और बाली के बीच के संवाद को लिखा है ;


किष्किंधापति बाली श्रीराम से कहते हैं ;
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा।
अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥
भावार्थ:-हे गोसाई ! मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ ! किस दोष से आपने मुझे मारा?॥

श्रीराम कहते हैं ;

अनुज बधू भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई।
ताहि बधें कछु पाप न होई॥
भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे मूर्ख ! सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या- ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता

मेरा मानना है कि इस तरह के नृशंस कृत्य अमानवीय हैं अतः इसके लिए दोषियों को भी कठोरतम दंड अविलम्ब दी जाएं। परन्तु ये महज अल्पकालिक समाधान हीं होंगे। दीर्घकालिक समाधान के लिए प्रशासनिक व न्यायिक शक्रियता के साथ आमजन को भी समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को सुनिश्चित कर उसे निर्वहन करने होंगे। क्योंकि सामाजिक स्तर पर छोटे छोटे सुधार मानवता को सुनिश्चित कर सकते हैं।
कुछ दिनों पहले आदरणीय सुश्री वंदिता जी जो प्रिंट मीडिया के एक साप्ताहिक समाचार पत्र में में ब्यूरो चीफ हैं, ने "Qवीक Rएक्शन" के 23वें स्तम्भ में "भारतीय पुरुष : ???" शीर्षक के नाम से एक आर्टिकल लिखा था जिसमे उन्होंने अपने लेख के माध्यम से नारी की विवशता के सम्बंध में समाज में छुपे अदृश्य कुसंस्कारों को बीच चौराहे पर लाकर पुरुष समाज में उसे  आत्ममंथन का विषय बनाने की एक पहल करी थी। हम उनके प्रयास की सराहना व प्रसंशा भी करते हैं। उनके लेख को आइये एकबार फिर हम और आप पढ़ें आउर सन्दर्भों व निहित कथानकों को समझें और अपने उत्तरदायित्व को निर्धारित करें :-⤵️

हमारे समाज के प्रत्येक नागरिकों को नारी समान के प्रति जागरूता के साथ अपने कर्तव्य निर्वहन करने होंगे। नारी सम्मान के संदर्भ में  समाज/परिवार मे व्यप्त छोटी से छोटी विसंगतियों पर भी त्वरित विरोध कर दोषी को दण्डित करने होंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे कुपात्रों की संख्या अभी बहुत कम है,

अतः यदि इन सन्दर्भों पर पुरुष समाज अपने व अपने से जुड़े लोगों के साथ व्यापक विचारविमर्श व चर्चा करें कि ;

◆हमारी समाजिक रूपरेखा किस दिशा ओर अग्रसर हो रही है ?

◆हम अपने समकक्ष व आने वाली पीढ़ी के लिए किन आदर्श को स्थापित कर रहे हैं ?

◆क्या ऐसी प्रवृतियाँ मानवता को तार-तार करती रहेंगीं ?

◆आखिर कब तक हम ऐसी सामाजिक कोढ़ से अपना मुँह मोड़ते रहेंगे ?
..तो इस समस्या का निदान बहुत हद तक सम्भव भी है। यदि कुछ मुट्ठी भर समर्थवान/सक्षम/सम्भ्रान्त समाज को लगता है कि "हम सुरक्षित हैं, जो हो रहा है होने दो, हमारा क्या, जो हुआ सो हुआ…" तो हम उन लोगों से बस यही कहना चाहेंगे कि अभी वक्त है,ऐसे कुपात्रों की संख्या कम है (हो सकता है कि इन कुपात्रों में आपके अपने समकक्ष व आपके बच्चे भी हों) समय रहते उन्हें नारी-सम्मान की नैतिकता का पाठ समझाएं, सम्मान करना सिखाएँ नहीं तो राहत इंदौरी की एक बहुत हीं मशहूर सेर है :

"लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है"

वास्तविक समाज में तो अभी ऐसी प्रवृतियाँ कुछ कम हैं क्योंकि समाज मे अच्छे लोगों की भी कमी नहीं, वो ऐसी घटनाएं देखते हैं बड़ी निष्ठुरता से विरोध भी करते हैं, मगर सोशल मीडिया !! सोशल मीडिया में तो नग्न-नृत्य सा होने लगा है अब, किसी जान/अनजान महिला की सोशल मीडिया पोस्ट देखा नहीं कि कुछ युवा/अधेड़ पुरुष समाज नारी गरिमा को तार-तार करने वाले असभ्य/ओछे किस्म के एकदम अशोभनीय प्रतिक्रिया करने लगते हैं। ऐसा लगता है कि ऐसी प्रतिक्रिया करते समय वो भूल जाते हैं कि उसकी जननी भी एक महिला हीं है।


हम कुछ मुट्ठी भर महिलाओं के शीर्ष पर पहुंचने भर से नारी सशक्तिकरण की सकारात्मकता को नहीं मान सकते। इसमें कोई शक नहीं कि आज भी महिलाओं का अकल्पनीय वृहत समाज पुरुष समाज द्वारा उपहास, तंज, अन्याय, शोषण आदि का दंस झेलने को मजबूर हैं। कुछ सफेदपोश पुरुष समाज ऐसे भी हैं जो "नारी तू नारायणी" कहकर अप्रत्यक्ष रूप से नारी-शोषण करने का सर्टिफिकेट ले लेते हैं तो कुछ लगभग हर रोज हो रहे नारी अस्मिताओं को तार तार करदेने वाली घटनाओं पर अपनी राजनीतिक रोटी सेकते नजर आते हैं, अपनी छवि चमकते हैं। इस घृणित अपराध को भुनाने में खुद महिलाएं भी पीछे नहीं, नहीं तो यदि सभी (केवल) महिलाओं ने एकसाथ आवाज उठा दी तो रातोंरात प्रशासनिक व न्यायिक सक्रियता गुनहगारों में खौफ पैदा कर देगी जिससे समकक्ष व आने वाली नस्लें घृणित अपराध करना तो दूर सोचने पर भी उड़की रूह कांप उठेगी। मगर नहीं, वो अपनी रोटी सेंक बस अपने वाले कि फिक्र कर चलती बनेंगीं। 

आज के  स्वार्थी बिकाऊ बाजारवाद ने न्यायिक/प्रशासनिक परिक्रिया को भी नहीं छोड़ा है। अब समूचा प्रसाशनिक व न्यायिक परिक्रिया जैसे दो भागों में बट गया है जो सामर्थवानों के लिए अलग रवैय्या अपनाती है और वंचितों के लिए अलग, मतलब अमीरों के मामलों में तुरंत एक्शन व गरीबों के मामले में वही ढुलमुल रवैया। हाल हीं में  #मी_टू मूवमेंट के अंतर्गत कई मामले आये उनमें से एक केंद्र सरकार के एक मंत्री का आया जो भारत सरकार की तरफ से विदेश यात्रा पर नारी उत्थान के संदर्भ में बड़ी उदारता से ज्ञान बघार रहा था और यहाँ उसका वर्षों शोषण झेल कई वर्षों बाद सिर्फ एक महिला ने उसके विरुद्ध आवाज उठाया।

पिछले दशकों से मध्यम वर्ग की महिलाएं भी समाज मे निहित रूढ़िवादी विचारधारा को तोड़कर बड़े शहरों में पढ़ाई करने जाने लगी हैं क्योंकि वो भी आत्मनिर्भर होकर अपनों , अपने समाज व अपने राष्ट्र के लिए कुछ करना चाहती हैं। इस संघर्षों के दौरान जब उसके साथ शोषण/अन्याय होता है तो वो सामाजिक भय या किसी अन्य कारण से किसी से साझा भी नहीं कर सकती, अंदर हीं अंदर घुटती रहती हैं। बेशक यदि पुरुष समाज महिलाओं के प्रति सहयोग, समन्वय, सम्मान, समानता, शुचिता, सकारात्मक सम्प्रेषण, समुचित मार्गदर्शन की भावनाओं का त्याग करदे तो महिलाओं का जीना दूभर हो जाएगा। सभी चौक-चौराहे पर पुलिस चौकियों खोले जाएं, क्यूँ न जगह जगह पर कोर्ट कचहरी खोल दिये जायें जबतक पुरुष समाज की सोच में परिवर्तन न होगा इस समस्या का समुचित समाधान असम्भव है।

सोशल मीडिया नेटवर्किंग साइट्स ने जहाँ हमारे जीवन को सुगम बनाया वहीं परेशानी का सबब भी बना, यानी यह माध्यम जितना सुविधासम्पन्न है उतना हीं विनाशकारी भी। हालांकि ये हमारे उपयोग पर निर्भर करता है कि हम किस प्रकार उसका उपयोग करते हैं। आजकल चाहे वह पुरुष हो या महिलाएं, जैसे हीं उनके सोशल मीडिया पोस्ट में  वैचारिक विरोधाभास दिखा एक विशेष लम्पट प्रवृत्ति के युवा/अधेड़ भद्दी भद्दी अशोभनीय प्रतिक्रिया देने शुरू कर देते हैं, बिना जाने पहचाने। कई बार तो मानवता भी शर्मसार हो जाती है पोस्ट में प्रतिक्रिया को देख/पढ़ कर। ऐसा नहीं कि ऐसी प्रतिक्रियाएँ केवल पुरुष हीं नहीं करते, महिलाएं भी ज्यादा पीछे नहीं हैं। जबकि वैचारिक विविधता सृजनात्मक समाज की रीढ़ हैं, उसे सामंजस्य स्थापित कर अपनी बात/विचार मर्यादित शब्दों में रखने के बजाय गालियों की बौछारें करने लगते हैं। हो सकता है कि हम उस विचार से सहमत न हों, पर आलोचनाओं का लिए भी मर्यादाएँ हैं। अगर हम बिना गाली के आलोचना नहीं कर सकते तो हमारा शिक्षित होना क्या बेकार नहीं है? हमें बिना अमर्यादित शब्दों 【गाली-गलौज】 के प्रतिवाद, विरोध, असहमति, आलोचना करने की कला सीखनी चाहिए।

हमें राजनीतिक/अन्य वैचारिक आलोचना करनी हो शौक से करें, हम सब कुछ कह सकते हैं, निवेदन केवल भाषा और अभिव्यक्ति की मर्यादा का ध्यान रखने के लिए है, विशेष तौर पर स्त्रियों की मर्यादा। यदि महिला भी असभ्य भाषा का प्रयोग करे तो हमें और भी ज्यादा सभ्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए। एकबार करके देखिए, अपने अनुभव से बता रहा हूं इसका असर होता है।

बड़ी हीं विडम्बना है कि आज पूंजीवादी विकास ने हमारी सभ्यता/संस्कृति को कहीं का नहीं छोड़ा, छद्म प्रगतिशील बाजारवाद ने हमारी जीवनशैली को इतनी तेज रफ्तार से गतिशीलता दी है कि अधिकतर लोगों को अपने किये पर चिंतन करने की फुर्सत नहीं। हर जगह हर पल एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ ने हमारे जीवन को यंत्रवत कर दिया है। इस प्रगति ने हमारी सभ्यतावादी संस्कार को बहुत हीं पीछे छोड़ दिया है।

इसतरह के अपराधों का मुख्य कारण प्रसाशन का ढुलमुल रवैया और न्यायिक निष्क्रियता है जिसे गुनहगारों में खौफ नहीं रहता, मुझे शर्म आती है ये बताते हुए की दिसम्बर 2012 में घटी निर्भयाकांड के गुनहगारों को आज तक फांसी में नहीं लटकाया गया है, न्यायिक निष्क्रियता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा ??

जबकि हाल हीं में घटित हैदराबाद की घटनाओं में जब प्रशासन ने मुठभेड़ में चारों दोषियों पर त्वरित कार्रवाई की तो इसपर भी सवाल उठ रहे हैं। बेशक दण्ड के प्रावधान न्यायिक होने चाहिए थे परंतु अभी भी हजारों हजार मामले न्यायालय में धारा 375 / 376 के अंतर्गत लंबित हैं, क्या अगले एक माह के अंदर न्यायिक सक्रियता को बड़ा कर सभी दोषियों को फाँसी दी जाएगी !! नहीं, ऐसा कतई सम्भव नहीं। 
मगर हमारी लोकतांत्रिक सरकारों को अपार जनमानस की भावनाओं को ध्यान में रखकर न्यायिक शक्रियता सुनिश्चित करनी हीं होंगी। यदि अन्य मामले में रातों को भी न्यायपालिका न्याय के लिए दरवाजे खोल सकती हैं, अवकाश में भी सुनवाई हो सकती है, तो न्यायपालिका में एक अलग व्यवस्था सुनिश्चित कर आने वाले दिनों में सभी दोषियों को फांसी पर लटकाया जा सकता है, ऐसा सम्भव है परंतु इसके लिए लोकतांत्रिक व न्यायिक दृढ़इच्छाशक्ति की जरूरत होगी।

अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का साहस इंसाफ की राह में उठाया गया शुरूआती कदम होता है इस आवाज को मिलने वाले समर्थन से तय होता है समाज आज भी कितना इंसाफ पसंद है। कार्यस्थल/सार्वजनिकस्थल पर अपमान व घुटन का अनुभव करने वाली महिलाओं की एक बड़ी आबादी सामाजिक लांछन और अन्य आकांक्षा से चुप रहती आई है लेकिन अब मुकरता का दौर है जिससे लैंगिक समानता की दिशा में संभावनाओं के नए द्वार खुल रहे हैं। लैंगिक समानता और न्याय के लिए दीर्घकालिक प्रयास जरूरी है। समाज में जागरूकता के साथ संस्थानिक प्रणाली के व्यापकता को सुनिश्चित करने की माहती चुनौती है इसके लिए महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान की गारंटी के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए।

शर्म की बात है आखिर कब तक हम विजयादशमी के अवसर पर रावण के झूठे पुतले को जलाकर आत्मसंतुष्टि का स्वांग रचते रहेंगे..?
इतिहास गवाह है हर युगों में जब जब  सामाजिक परिवर्तन या विषम परिस्थितियों का दौर आया है, तब तब युवाओं ने हीं बढ़-चढ़ कर वंचित पीड़ितों का नेतृत्व कर समाज को एक नई दिशा दी है।
आज इस विस्मयकारी परिस्थितियों में हम युवाओं का बहुत हीं बड़ा उत्तरदायीत्व है कि हम कैसे एक ऐसे समाज का निर्माण करें जहाँ  हमारे समाज (वसुधैव कुटुम्बकम) की महिलाएं निशंक स्वच्छंद अपनी प्रतिभा का चर्मोत्कर्ष कर समाज/राष्ट्र को नई दिशा देने में कहीं भी हमसे पीछे न रहें।
अक्षय आनन्द श्री

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