#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड_34

अपात्र नेतृत्व, गुमराह युवान और कराहता जनहित

निदा फाजली की एक कृति जो आज के हमारे समकक्ष युवान साथियों पर क्या खूब जचती है...

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं |

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम है

हमारे युवान साथी क्या सचमुच इतने हल्के जमीर के हो गए...!! ठहरिए, सोचिए, नहीं तो आज का बुद्धिमान प्रपंची नेतृत्व हमें कहिं का नहीं छोड़ेगा, वर्तमान में वो खुद के लिए आपका उपयोग करेगा फिर अपने पाल्यों के लिए निबंधित करेगा... हे भारत ! राष्ट्र के प्रति अपने नैतिक कर्तव्यों के निर्वहन से न कतराएं, न घबरायें, अपनी हिम्मत हारती जिजीविषा से कहें #डटे_रहो व अपनी अंतरात्मा को हमेशा स्पंदित करते रहें अपने उत्तरदायित्व के प्रति। अपनी प्राथमिकताऐं निश्चित करें और कदम बढ़ाएं, असंख्य असहाय निर्बल वंचित समुदाय के पीड़ित प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से आशा भरी निगाहों से हमारी तरफ देख रहे हैं।

आज की स्वार्थलिप्सा में सभी राजनैतिक दलों के लगभग सभी जनप्रतिनिधि आकंठ डूबे हैं। पक्ष/विपक्ष की नैतिकता लगभग समाप्त हो गई है, जनहित के मुद्दों से कोई मतलब हीं नहीं। सड़े-गले मुद्दों को हवा देकर  कर जनमानस व जनहित को ठगने का काम कर रहे हैं। आज जिस प्रकार मनमाने ढंग से लोकतांत्रिक दलें अपने अपरिपक्व, लालची, स्वार्थी, प्रत्याशी जनता पर ऐसे थोप रहे हैं जैसे उनके यहां प्रतिभावान प्रत्याशी मौजूद हीं नहीं, मगर ऐसा नहीं है। बात यह है कि दलों के शीर्षस्थों को ऐसे प्रत्याशी की जरूरत है जो उनके इशारे पर चलें, जनहित को ठगने में माहिर हों, आधारभूत समस्याओं को दरकिनार करने की कला में महारथ हासिल हों ,जिताऊ हो व उनकी पृष्टभूमि कुछ भी क्यों न हो कोई दिक्कत नहीं। शायद इसी कारण एकाधिपत्यवाद, परिवारवाद की जड़ें मजबूत हो रही हैं, परिणामस्वरूप शासन में जनभागीदारी का कोई स्थान नहीं, जनहित की कोई परवाव नहीं।  ये लोकतंत्र के दीर्घायु व भारतीय संघीय व्यवस्था के आयुष्मान होने के लिए बहुत हीं दुख की बात है। आज व्यावसायिक घरानों को निति निर्धारण के केंद्र में रख कर नई नीतियां बनाई गईं जिससे ग्रामीण भारत की जनता व युवा वर्ग में सरकार के प्रति घृणा काफी बढ़ी। लोकतंत्र में आस्था कमी हुई व लोग सोचने पर मजबूर हुए की आखिर किसलिए हम सरकारें चुनते हैं...?? ऐसी नीतिगत फैसले से लोकतंत्र की नींव कमजोर पड़ती जा रही है जिसका प्रमुख कारण नीति निर्धारण में जनभागीदारी की अनुपस्थिति है। वर्तमान समय में हमारे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणराज्य के अतित्व कि रक्षा इसी में है कि जन~समस्याओं का समाधान जनसहयोग से निकाला जाए तो बेहतर होगा। अब प्रतिनिधित्व मात्र से जनतंत्र सफल नहीं हो सकता, जनभागीदारी भी बहुत आवश्यक है। वर्तमान लोकतंत्र के इस नए दौर में सरकारों को नीति निर्धारण में जन भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी केवल क्योंकि 5 साल में एक बार चुनी हुई सरकार से अब काम नहीं चलने वाला। वर्तमान लोकतंत्र इस सिद्धांत पर टिका है कि कोई एक व्यक्ति बहुत से लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकता है जिससे एक बार लोग अपना प्रतिनिधि चुने लेते हैं तो उसका निर्णय लेने का अधिकार उस एक व्यक्ति को हस्तांतरित हो जाता है और यहीं से जन शोषण का दौर सुरु हो जाता है। परिणामस्वरूप किसी तरह चुनाव जीत लेने के बाद जनप्रतिनिधि स्वार्थ रंजीत हो जाते हैं और पूंजीपतियों ठेकेदारों नौकरशाहों से ज्यादा नजदीक हो जाते हैं। यही कारण है कि चुनाव के तुरंत बाद ही लोगों में असंतोष फैलने लगता है जो धीरे-धीरे आंदोलन का रूप लेने लगता है फिर सरकार उसे दबाने में लग जाती है। लोकतंत्र का यह स्वरूप बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला क्योंकि इन आंदोलनों को दबाने के लिए सरकारें बल प्रयोग करती है। इसलिए अब समय आ गया है कि जनप्रतिनिधियों की समझ और तौर तरीकों में बदलाव लाया जाए। भारत विश्व का सर्वाधिक युवा आबादी वाला सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश है और शर्म की बात है कि आज युवा हीं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। आज देश मे शिक्षा और रोजगार के अवसर सीमित किये जा रहे हैं, रोजगार के नए अवसर सृजित नही  हो पा रहे हैं, जो पहले से हैं उनमें से बहुतों में न हीं नई बहाली हो रही है हद तो तब हो रही है कि उनमें कुछ अवसरों को हीं समाप्त भी किये जा रहे हैं और लोकतांत्रिक सरकारें निजीकरण को बढ़ावा दे रही हैं।

वर्तमान लोकतांत्रिक सरकार की #निजीकरण की नीति भविष्य में सारी परेशानियों की जड़ हैं क्योंकि;

★ इससे बेरोजगारी बढ़ेगी क्योंकि इससे आम जन के लिए रोजगार के अवसर घटेंगे
★ श्रमिकों और कामगारों के शोषण बढेगा
★ दैनिक जीवन की आम जरूरतों की मुनाफाखोरी बढ़ेगी, मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि होगी
★ जनहित के लिए सृजित योजनओं के अनुपालन में कम्पनियों की रुचि घटेगी व अन्य और भी कई विकराल समस्याओं का प्रादुर्भाव होगा जिसकी कल्पना हम सभी अभी नहीं कर सकते।
वर्तमान में लोकतांत्रिक सरकार जो भी कुछ  चंद गिनती के नए अवसर सृजित किये जा रहे हैं उनमें प्रमुख पदों पर अपने परिजनों/चाटुकारों/हितकरों व उनके अपात्र पाल्यों की बहाली लेटरल इंट्री के माध्यम से कर रहे हैं।

✴️उच्च शिक्षा जैसे चिकित्सा शिक्षा, कानून शिक्षा, अभियंत्रण शिक्षा इत्यादि के लिए एकल परीक्षा कर ग्रामीण भारत के विषमतापोषित अभ्यार्थियों को इससे वंचित किया जा रहा है क्योकि देश की शैक्षणिक व्यवस्था में एकल पद्धति,गुणवत्ता और अवसर नहीं है
✴️जबकि वर्तमान में आर्थिक विषमता चरम पर है तथापि उच्च शिक्षा को बिकाऊ व मुनाफेभरा बाजार बनाया जा रहा है
✴️रोजगार के अवसर सृजित न कर वर्तमान प्रतियोगिता परीक्षा में प्रवेश हेतु पात्रता आयुसीमा और अवसरों की सीमाएं निर्धारित कर प्रतिभागियों को वंचित किया जा रहा है


✴️देश की सरकारी प्राथमिक व  माध्यमिक शिक्षा की बदहाली जो सर्वव्यापक है, इसपे अनुशंधान करने के बजाय परीक्षा प्रणाली में नित नए नवोन्मेष कर हासिये पर स्थित ग्रामीण अभ्यार्थियों की प्रतिभा को कुंठित किया जा रहा है


✴️गरीब लोग भूखे सोने पर विवश हैं, वे 400- 500 ₹ मासिक सामाजिक सुरक्षा पेंशन में महीने भर अपनी जीविका चलाने पर मजबूर हैं।


✴️नारियों के मान सम्मान के सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं


✴️जनप्रतिनिधियों द्वारा नौकरशाही मनमानी से पीड़ित हाशिये पर स्थित वंचित अभ्यार्थियों की समस्या को सुनकर समाधान तो दूर की बात,इसके इतर वो इनकी मांगों को हिं अनसुनी कर इनकी आवाज को दबा देते हैं। 


इसका उदाहरण हाल के upsc में csat से पीड़ित अभ्यार्थीयों  के क्षतिपूर्ति की मांग को वर्तमान केंद्र सरकार लगातार अनसुनी करती आ ही रही है, कोरोना महामारी से पीड़ित UPSC के वैसे अभ्यार्थी जो 2020 में परीक्षा में सम्मलित नहीं हो पाए उन्हें 2021 की परीक्षा में न तो अतिरिक्त मात्र एक अवसर दिए गए और न हीं आयुसीमा में छूट दी गई। जब पीड़ित अभ्यार्थियों ने अपनी मांग को सुप्रीम कोर्ट में रक्खा तो वहां भी निराशा हाथ लगी। अब ये विद्यार्थी किस संस्था या व्यक्ति से मांग करें.?? इस सम्बंध  में आप कर्म कसौटी न्यूज के साप्ताहिक पत्रिका में  छपे  सुश्री www.twitter.com/VanditaMishr जी के लेख को पढ़ सकते हैं जो निम्नांकित हैं👇

पिछले दिनों किसान आंदोलन से जुड़े असहमति को वैश्विक स्तर पर साझा किया गया तो कानूनी कार्रवाई करते हुए न्यायिक हिरासत में ले लिया गया। यही हाल अन्य रोजगार प्रदत प्रवेश परीक्षाओं जैसे SSC व अन्य की है, पहले तो वेकेंसियां नहीं निकलती, निकलती हैं तो परीक्षा सम्पादन में 2-3 वर्ष लग जाते हैं और कहीं परीक्षा संचालन में कदाचार के आरोप लगे तो परीक्षा केंसिल, जांच और न्यायिक सुनवाई में वर्षों लग जाते हैं, अब यदि कोई परीक्षा सफलता से सम्पन्न हो जाये तो सफल अभ्यर्थियों के नियुक्तियों में नाकों चने चबाने होते हैं। केंद्रीय और राज्य की रोजगार परक परीक्षा की ये निराशाजनक परिस्थिति है।

उपरोक्त आधारभूत मुद्दों से आज के जनप्रतिनिधियों को कोई मतलब नहीं रह गया, यहाँ तक कि इन परेशानियों पर बातें करने से हमारे नेताओं कतराते हैं जैसे उनकी सोच व मानसिकता में खरोंच आ जाती है। कोई आधारभूत आवश्यक आवश्यकताओं पर खुलकर कुछ नही बोल रहा, उन्हें #पियो_फेंको वाले मुद्दे चाहियें जिससे उनका कि जनता दोनों का समय कटता रहे, उनकी राजनीतिक दुकानों चलती रहें, जनता/युवा चीखती रहें... कोई सुधि नही लेने वाला....                          

आज हमारे लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधारों की सबसे ज्यादा जरूरत है, एक बार  सत्ता/जमात की बागडोर सम्भाल लेने के बाद जनप्रतिनिधि लोकतंत्र की आढ़ में अकूत धनसंचय कर राजतंत्र का संचालन करने लगते हैं, शासन प्रणाली में जनभागीदारी का कोई स्थान नहीं रह जाता और परिणामस्वरूप जनता की अहमियत एक गुलाम से बढ़कर कुछ नहीं रह जाती । ऐसी परिस्थिति में युवाओं व बेरोजगारों ( नहीं, केवल बेरोजगार नहीं, इन्हें स्किल्ड अनइम्प्लॉइड यूथ कहें तो ज्यादा सम्मानजनक होगा) में क्षोभ व्यवहारीक ही है।
हम सभी जानते हैं कि किसी भी देश की तरक्की वहां के युवाओं को मिलने वाले रोजगार पर निर्भर करती हैं, लेकिन अगर युवाओं को पर्याप्त रोजगार न मिले तो उनके न सिर्फ सपने टूटते हैं बल्कि अवसाद के कारण उनके गलत कदम उठाने की ओर बढ़ने की संभावना भी रहती हैऔर इसके भयंकर परिणाम भी सामने आ रहे हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में किसानों से ज्यादा बेरोजगार लोगों ने आत्महत्या की है.जो एक शर्मनाक रिकॉर्ड है. साल 2018 में 12,936 लोगों ने बेरोजगारी से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी.जबकि इसी साल 10,349 किसानों ने खुदकुशी की थी.इससे पता चलता है कि देश में बेरोजगारों के अंदर हताशा की क्या स्थिति है, इस पर केंद्र सरकार को त्वरित न्याय की दिशा में नीतिगत फैसले लिए जाने चाहिए

साथियों अपनी काबिलियत को पहचानें, थोड़ा रुकिए, सोचिए, उचित- अनुचित में भेद करिये, निर्णय लीजिए क्या सही क्या गलत है, अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित कर अपने उत्तरदायित्व को समझिए। देश का भविष्य हम युवान हैं , हम हैं तो देश है।

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