#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड-17
#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष
#एपिसोड--17
"अपात्र नेतृत्व, गुमराह युवान और कराहता जनहित"
आज हमारे लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधारों की सबसे ज्यादा जरूरत है, एक बार सत्ता/जमात की बागडोर सम्भाल लेने के बाद जनप्रतिनिधि लोकतंत्र की आढ़ में अकूत धनसंचय कर राजतंत्र का संचालन करने लगते हैं, शासन प्रणाली में जनभागीदारी का कोई स्थान नहीं रह जाता और परिणामस्वरूप जनता की अहमियत एक गुलाम से बढ़कर कुछ नहीं रह जाती । समय रहते लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों के लिए सीमाएँ निर्धारित न कि गईं तो अपात्र जननेताओं की स्वार्थलिप्सा देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था का सर्वनाश कर देंगीं, सीमाएं जैसे :-
1.जनप्रतिनिधियों की शैक्षणिक गुणवत्ता के साथ जनप्रतिनिधि होने के लिए कम से कम 10 वर्षों का सामाजिक कल्याण का अनुभव व संविधान की जानकारी हों
2. जनप्रतिनिधित्व के अवसर सीमित हों जैसे दो से तीन बार, इससे जहाँ दूसरे पात्रों को भी जनप्रतिनिधित्व का अवसर मिलेगा वहीं शासन में पारदर्शिता आएगी, लोकतंत्र में परिवारवाद/एकाधिपत्यवाद भी समाप्त होगा व जनभागीदारी सुनिश्चित होगी व जनहित सर्वोपरि होगा
मतदान बहिष्कार या NOTA से आपके शासन के प्रति प्रतिशोध में क्षणिक कमी तो आवश्य आएगी परन्तु खुद को इसप्रकार तठस्थ कर बाद में शर्मिंदगी भी होगी। क्योंकि मतदान बहिष्कार या NOTA से कुछ नहीं होगा, हमने rti व निर्वाचन आयोग से उपलभ्ध आंकड़ों को समझा और पाया कि शासन में व्यवस्था परिवर्तन विकल्पों के चयन से हुआ, खुद की तठस्थता से नहीं। वैसे भी जिस शासन व्यवस्था से आप निराश हैं वो तो चाहेंगे हीं की यदि आप मुझे वोट न दें तो किसी को न दें, आप मतदान बहिष्कार कर या नोटा का चयन के खुद को तठस्थ कर लें जिससे वो ज्यादा प्रभावित न हों। आप विकल्पों पर विचार कर व्यक्तिगत निराशा से ऊपर उठकर राष्ट्रहित/युवानहित/जनहित के सापेक्ष अपना मतदान करें।
एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में 14वीं लोकसभा चुनाव 2004 में अपने मतदाता पहचान पत्र के साथ हमने पहली बार अपने मतदान का प्रयोग कर अपने उंगलियों के नाखून पर स्याही की लकीर लगवाई थी।
आपके मतदान से देश का भविष्य रचेगा, मतदान जरूर करें
#एपिसोड--17
"अपात्र नेतृत्व, गुमराह युवान और कराहता जनहित"
निदा फाजली की एक कृति जो आज के हमारे समकक्ष युवान साथियों पर क्या खूब जचती है...
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं |
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं |
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं |
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं |
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं |
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं |
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |
हमारे युवान साथी क्या सचमुच इतने हल्के जमीर के हो गए...!! ठहरिए, सोचिए, नहीं तो आज का बुद्धिमान प्रपंची नेतृत्व हमें कहिं का नहीं छोड़ेगा, वर्तमान में वो खुद के लिए आपका उपयोग करेगा फिर अपने पाल्यों के लिए निबंधित करेगा... हे भारत ! राष्ट्र के प्रति अपने नैतिक कर्तव्यों के निर्वहन से न कतराएं, न घबरायें, अपनी हिम्मत हारती जिजीविषा से कहें #डटे_रहो व अपनी अंतरात्मा को हमेशा स्पंदित करते रहें अपने उत्तरदायित्व के प्रति। अपनी प्राथमिकताऐं निश्चित करें और कदम बढ़ाएं, असंख्य असहाय निर्बल वंचित समुदाय के पीड़ित प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से आशा भरी निगाहों से हमारी तरफ देख रहे हैं।
आज की स्वार्थलिप्सा में सभी राजनैतिक दलों के लगभग सभी जनप्रतिनिधि आकंठ डूबे हैं। पक्ष/विपक्ष की नैतिकता लगभग समाप्त हो गई है, जनहित के मुद्दों से कोई मतलब हीं नहीं। सड़े-गले मुद्दों को हवा देकर कर जनमानस व जनहित को ठगने का काम कर रहे हैं। आज जिस प्रकार मनमाने ढंग से लोकतांत्रिक दलें अपने अपरिपक्व, लालची, स्वार्थी, प्रत्याशी जनता पर ऐसे थोप रहे हैं जैसे उनके यहां प्रतिभावान प्रत्याशी मौजूद हीं नहीं, मगर ऐसा नहीं है। बात यह है कि दलों के शीर्षस्थों को ऐसे प्रत्याशी की जरूरत है जो उनके इशारे पर चलें, जनहित को ठगने में माहिर हों, आधारभूत समस्याओं को दरकिनार करने की कला में महारथ हासिल हों ,जिताऊ हो व उनकी पृष्टभूमि कुछ भी क्यों न हो कोई दिक्कत नहीं। शायद इसी कारण एकाधिपत्यवाद, परिवारवाद की जड़ें मजबूत हो रही हैं, परिणामस्वरूप शासन में जनभागीदारी का कोई स्थान नहीं, जनहित की कोई परवाव नहीं। ये लोकतंत्र के दीर्घायु व भारतीय संघीय व्यवस्था के आयुष्मान होने के लिए बहुत हीं दुख की बात है। आज व्यावसायिक घरानों को निति निर्धारण के केंद्र में रख कर नई नीतियां बनाई गईं जिससे ग्रामीण भारत की जनता व युवा वर्ग में सरकार के प्रति घृणा काफी बढ़ी। लोकतंत्र में आस्था कमी हुई व लोग सोचने पर मजबूर हुए की आखिर किसलिए हम सरकारें चुनते हैं...?? ऐसी नीतिगत फैसले से लोकतंत्र की नींव कमजोर पड़ती जा रही है जिसका प्रमुख कारण नीति निर्धारण में जनभागीदारी की अनुपस्थिति है। वर्तमान समय में हमारे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणराज्य के अतित्व कि रक्षा इसी में है कि जन~समस्याओं का समाधान जनसहयोग से निकाला जाए तो बेहतर होगा। अब प्रतिनिधित्व मात्र से जनतंत्र सफल नहीं हो सकता, जनभागीदारी भी बहुत आवश्यक है। वर्तमान लोकतंत्र के इस नए दौर में सरकारों को नीति निर्धारण में जन भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी केवल क्योंकि 5 साल में एक बार चुनी हुई सरकार से अब काम नहीं चलने वाला। वर्तमान लोकतंत्र इस सिद्धांत पर टिका है कि कोई एक व्यक्ति बहुत से लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकता है जिससे एक बार लोग अपना प्रतिनिधि चुने लेते हैं तो उसका निर्णय लेने का अधिकार उस एक व्यक्ति को हस्तांतरित हो जाता है और यहीं से जन शोषण का दौर सुरु हो जाता है। परिणामस्वरूप किसी तरह चुनाव जीत लेने के बाद जनप्रतिनिधि स्वार्थ रंजीत हो जाते हैं और पूंजीपतियों ठेकेदारों नौकरशाहों से ज्यादा नजदीक हो जाते हैं। यही कारण है कि चुनाव के तुरंत बाद ही लोगों में असंतोष फैलने लगता है जो धीरे-धीरे आंदोलन का रूप लेने लगता है फिर सरकार उसे दबाने में लग जाती है। लोकतंत्र का यह स्वरूप बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला क्योंकि इन आंदोलनों को दबाने के लिए सरकारें बल प्रयोग करती है। इसलिए अब समय आ गया है कि जनप्रतिनिधियों की समझ और तौर तरीकों में बदलाव लाया जाए। भारत विश्व का सर्वाधिक युवा आबादी वाला सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश है और शर्म की बात है कि आज युवा हीं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। आज देश मे शिक्षा के अवसर सीमित किये जा रहे हैं, रोजगार के नए अवसर सृजित नही हो पा रहे हैं, जो पहले से हैं उनमें से बहुतों में न हीं नई बहाली हो रही है हद तो तब हो रही है कि उनमें कुछ अवसरों को हीं समाप्त भी किये जा रहे हैं। जो भी कुछ चंद गिनती के नए अवसर सृजित किये जा रहे हैं उनमें अपने परिजनों/चाटुकार व उनके अपात्र पाल्यों की बहाली कर रहे हैं। ये स्थितियां लगभग सभी राजनीतिक दलों की है।
✴️उच्च शिक्षा जैसे चिकित्सा शिक्षा, कानून शिक्षा, अभियंत्रण शिक्षा इत्यादि के लिए अवसर सीमित कर ग्रामीण भारत के विषमतापोषित अभ्यार्थियों को इससे वंचित किया जा रहा है
✴️जबकि वर्तमान में आर्थिक विषमता चरम पर है तथापि उच्च शिक्षा को बिकाऊ व मुनाफेभरा बाजार बनाया जा रहा है
✴️रोजगार के अवसर सृजित न कर वर्तमान प्रतियोगिता परीक्षा में प्रवेश हेतु पात्रता आयुसीमा सीमाएं निर्धारित कर प्रतिभागियों को वंचित किया जा रहा है
✴️देश की सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की बदहाली जो सर्वव्यापक है, इसपे अनुशंधान करने के बजाय परीक्षा प्रणाली में नित नए नवोन्मेष कर हासिये पर स्थित ग्रामीण अभ्यार्थियों की प्रतिभा को कुंठित किया जा रहा है
✴️गरीब लोग भूखे सोने पर विवश हैं, वे 400- 500 ₹ मासिक पेंशन में महीने भर अपनी जीविका चलाने पर मजबूर हैं।
✴️नारियों के मान सम्मान के सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं
✴️जनप्रतिनिधियों द्वारा नौकरशाही मनमानी से पीड़ित हाशिये पर स्थित वंचित अभ्यार्थियों की समस्या को सुनकर समाधान तो दूर की बात,इसके इतर वो इनकी मांगों को हिं अनसुनी कर इनकी आवाज को दबा देते हैं। इसका उदाहरण हाल के upsc में csat से पीड़ित अभ्यार्थी, NEETug शिक्षार्थी, व प्रतियोगिता परीक्षा संचालन की पवित्रता पर सवाल
उपरोक्त आधारभूत मुद्दों से आज के जनप्रतिनिधियों को कोई मतलब नहीं रह गया, यहाँ तक कि इन परेशानियों पर बातें करने से हमारे नेताओं कतराते हैं जैसे उनकी सोच व मानसिकता में खरोंच आ जाती है। कोई आधारभूत आवश्यक आवश्यकताओं पर खुलकर कुछ नही बोल रहा, उन्हें #पियो_फेंको वाले मुद्दे चाहियें जिससे उनका कि जनता दोनों का समय कटता रहे, उनकी राजनीतिक दुकानों चलती रहें, जनता/युवा चीखती रहें... कोई सुधि नही लेने वाला....
आज की स्वार्थलिप्सा में सभी राजनैतिक दलों के लगभग सभी जनप्रतिनिधि आकंठ डूबे हैं। पक्ष/विपक्ष की नैतिकता लगभग समाप्त हो गई है, जनहित के मुद्दों से कोई मतलब हीं नहीं। सड़े-गले मुद्दों को हवा देकर कर जनमानस व जनहित को ठगने का काम कर रहे हैं। आज जिस प्रकार मनमाने ढंग से लोकतांत्रिक दलें अपने अपरिपक्व, लालची, स्वार्थी, प्रत्याशी जनता पर ऐसे थोप रहे हैं जैसे उनके यहां प्रतिभावान प्रत्याशी मौजूद हीं नहीं, मगर ऐसा नहीं है। बात यह है कि दलों के शीर्षस्थों को ऐसे प्रत्याशी की जरूरत है जो उनके इशारे पर चलें, जनहित को ठगने में माहिर हों, आधारभूत समस्याओं को दरकिनार करने की कला में महारथ हासिल हों ,जिताऊ हो व उनकी पृष्टभूमि कुछ भी क्यों न हो कोई दिक्कत नहीं। शायद इसी कारण एकाधिपत्यवाद, परिवारवाद की जड़ें मजबूत हो रही हैं, परिणामस्वरूप शासन में जनभागीदारी का कोई स्थान नहीं, जनहित की कोई परवाव नहीं। ये लोकतंत्र के दीर्घायु व भारतीय संघीय व्यवस्था के आयुष्मान होने के लिए बहुत हीं दुख की बात है। आज व्यावसायिक घरानों को निति निर्धारण के केंद्र में रख कर नई नीतियां बनाई गईं जिससे ग्रामीण भारत की जनता व युवा वर्ग में सरकार के प्रति घृणा काफी बढ़ी। लोकतंत्र में आस्था कमी हुई व लोग सोचने पर मजबूर हुए की आखिर किसलिए हम सरकारें चुनते हैं...?? ऐसी नीतिगत फैसले से लोकतंत्र की नींव कमजोर पड़ती जा रही है जिसका प्रमुख कारण नीति निर्धारण में जनभागीदारी की अनुपस्थिति है। वर्तमान समय में हमारे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणराज्य के अतित्व कि रक्षा इसी में है कि जन~समस्याओं का समाधान जनसहयोग से निकाला जाए तो बेहतर होगा। अब प्रतिनिधित्व मात्र से जनतंत्र सफल नहीं हो सकता, जनभागीदारी भी बहुत आवश्यक है। वर्तमान लोकतंत्र के इस नए दौर में सरकारों को नीति निर्धारण में जन भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी केवल क्योंकि 5 साल में एक बार चुनी हुई सरकार से अब काम नहीं चलने वाला। वर्तमान लोकतंत्र इस सिद्धांत पर टिका है कि कोई एक व्यक्ति बहुत से लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकता है जिससे एक बार लोग अपना प्रतिनिधि चुने लेते हैं तो उसका निर्णय लेने का अधिकार उस एक व्यक्ति को हस्तांतरित हो जाता है और यहीं से जन शोषण का दौर सुरु हो जाता है। परिणामस्वरूप किसी तरह चुनाव जीत लेने के बाद जनप्रतिनिधि स्वार्थ रंजीत हो जाते हैं और पूंजीपतियों ठेकेदारों नौकरशाहों से ज्यादा नजदीक हो जाते हैं। यही कारण है कि चुनाव के तुरंत बाद ही लोगों में असंतोष फैलने लगता है जो धीरे-धीरे आंदोलन का रूप लेने लगता है फिर सरकार उसे दबाने में लग जाती है। लोकतंत्र का यह स्वरूप बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला क्योंकि इन आंदोलनों को दबाने के लिए सरकारें बल प्रयोग करती है। इसलिए अब समय आ गया है कि जनप्रतिनिधियों की समझ और तौर तरीकों में बदलाव लाया जाए। भारत विश्व का सर्वाधिक युवा आबादी वाला सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश है और शर्म की बात है कि आज युवा हीं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। आज देश मे शिक्षा के अवसर सीमित किये जा रहे हैं, रोजगार के नए अवसर सृजित नही हो पा रहे हैं, जो पहले से हैं उनमें से बहुतों में न हीं नई बहाली हो रही है हद तो तब हो रही है कि उनमें कुछ अवसरों को हीं समाप्त भी किये जा रहे हैं। जो भी कुछ चंद गिनती के नए अवसर सृजित किये जा रहे हैं उनमें अपने परिजनों/चाटुकार व उनके अपात्र पाल्यों की बहाली कर रहे हैं। ये स्थितियां लगभग सभी राजनीतिक दलों की है।
✴️उच्च शिक्षा जैसे चिकित्सा शिक्षा, कानून शिक्षा, अभियंत्रण शिक्षा इत्यादि के लिए अवसर सीमित कर ग्रामीण भारत के विषमतापोषित अभ्यार्थियों को इससे वंचित किया जा रहा है
✴️जबकि वर्तमान में आर्थिक विषमता चरम पर है तथापि उच्च शिक्षा को बिकाऊ व मुनाफेभरा बाजार बनाया जा रहा है
✴️रोजगार के अवसर सृजित न कर वर्तमान प्रतियोगिता परीक्षा में प्रवेश हेतु पात्रता आयुसीमा सीमाएं निर्धारित कर प्रतिभागियों को वंचित किया जा रहा है
✴️देश की सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की बदहाली जो सर्वव्यापक है, इसपे अनुशंधान करने के बजाय परीक्षा प्रणाली में नित नए नवोन्मेष कर हासिये पर स्थित ग्रामीण अभ्यार्थियों की प्रतिभा को कुंठित किया जा रहा है
✴️गरीब लोग भूखे सोने पर विवश हैं, वे 400- 500 ₹ मासिक पेंशन में महीने भर अपनी जीविका चलाने पर मजबूर हैं।
✴️नारियों के मान सम्मान के सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं
✴️जनप्रतिनिधियों द्वारा नौकरशाही मनमानी से पीड़ित हाशिये पर स्थित वंचित अभ्यार्थियों की समस्या को सुनकर समाधान तो दूर की बात,इसके इतर वो इनकी मांगों को हिं अनसुनी कर इनकी आवाज को दबा देते हैं। इसका उदाहरण हाल के upsc में csat से पीड़ित अभ्यार्थी, NEETug शिक्षार्थी, व प्रतियोगिता परीक्षा संचालन की पवित्रता पर सवाल
उपरोक्त आधारभूत मुद्दों से आज के जनप्रतिनिधियों को कोई मतलब नहीं रह गया, यहाँ तक कि इन परेशानियों पर बातें करने से हमारे नेताओं कतराते हैं जैसे उनकी सोच व मानसिकता में खरोंच आ जाती है। कोई आधारभूत आवश्यक आवश्यकताओं पर खुलकर कुछ नही बोल रहा, उन्हें #पियो_फेंको वाले मुद्दे चाहियें जिससे उनका कि जनता दोनों का समय कटता रहे, उनकी राजनीतिक दुकानों चलती रहें, जनता/युवा चीखती रहें... कोई सुधि नही लेने वाला....
आज हमारे लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधारों की सबसे ज्यादा जरूरत है, एक बार सत्ता/जमात की बागडोर सम्भाल लेने के बाद जनप्रतिनिधि लोकतंत्र की आढ़ में अकूत धनसंचय कर राजतंत्र का संचालन करने लगते हैं, शासन प्रणाली में जनभागीदारी का कोई स्थान नहीं रह जाता और परिणामस्वरूप जनता की अहमियत एक गुलाम से बढ़कर कुछ नहीं रह जाती । समय रहते लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों के लिए सीमाएँ निर्धारित न कि गईं तो अपात्र जननेताओं की स्वार्थलिप्सा देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था का सर्वनाश कर देंगीं, सीमाएं जैसे :-
1.जनप्रतिनिधियों की शैक्षणिक गुणवत्ता के साथ जनप्रतिनिधि होने के लिए कम से कम 10 वर्षों का सामाजिक कल्याण का अनुभव व संविधान की जानकारी हों
2. जनप्रतिनिधित्व के अवसर सीमित हों जैसे दो से तीन बार, इससे जहाँ दूसरे पात्रों को भी जनप्रतिनिधित्व का अवसर मिलेगा वहीं शासन में पारदर्शिता आएगी, लोकतंत्र में परिवारवाद/एकाधिपत्यवाद भी समाप्त होगा व जनभागीदारी सुनिश्चित होगी व जनहित सर्वोपरि होगा
3. जनप्रतिनिधियों को मिलने वाली किसी भी प्रकार की सुविधा मात्र संवैधानिक जनप्रतिनिधि होने तक हीं सीमित रहें, बाद में किसी भी सुविधा का लाभ न मिले जैसे यात्रा, आवास, पेंशन, सुरक्षा...इत्यादि, जिससे जनप्रतिनिधियों में संतोष व त्याग की भावना आएगी व स्वयम्भू राजा वाली सोच में कमी आएगी
- साथियों अपनी काबिलियत को पहचानें, थोड़ा रुकिए, सोचिए, उचित- अनुचित में भेद करिये, निर्णय लीजिए क्या सही क्या गलत है, अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित कर अपने उत्तरदायित्व को समझिए। देश का भविष्य हम युवान हैं , हम हैं तो देश है।
मतदान बहिष्कार या NOTA से आपके शासन के प्रति प्रतिशोध में क्षणिक कमी तो आवश्य आएगी परन्तु खुद को इसप्रकार तठस्थ कर बाद में शर्मिंदगी भी होगी। क्योंकि मतदान बहिष्कार या NOTA से कुछ नहीं होगा, हमने rti व निर्वाचन आयोग से उपलभ्ध आंकड़ों को समझा और पाया कि शासन में व्यवस्था परिवर्तन विकल्पों के चयन से हुआ, खुद की तठस्थता से नहीं। वैसे भी जिस शासन व्यवस्था से आप निराश हैं वो तो चाहेंगे हीं की यदि आप मुझे वोट न दें तो किसी को न दें, आप मतदान बहिष्कार कर या नोटा का चयन के खुद को तठस्थ कर लें जिससे वो ज्यादा प्रभावित न हों। आप विकल्पों पर विचार कर व्यक्तिगत निराशा से ऊपर उठकर राष्ट्रहित/युवानहित/जनहित के सापेक्ष अपना मतदान करें।
एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में 14वीं लोकसभा चुनाव 2004 में अपने मतदाता पहचान पत्र के साथ हमने पहली बार अपने मतदान का प्रयोग कर अपने उंगलियों के नाखून पर स्याही की लकीर लगवाई थी।
आपके मतदान से देश का भविष्य रचेगा, मतदान जरूर करें



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