#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड--03
आजादी के तेहत्तर साल…
#अभ्युदय_से_चरमोत्कर्ष
#एपिसोड--03
28.10.2018
#आरक्षण: भोग या सहारा
किसी ने क्या खूब कहा है :~
“सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम्।
दैवायतं कुले जन्मः मयायत्तं तु पौरुषम्॥“
अर्थात - मैं चाहे सूत हूँ या सूतपुत्र, अथवा कोई और। किसी कुल-विशेष में जन्म लेना यह तो दैव के अधीन है, मेरे पास जो पौरुष है उसे मैने पैदा किया है।
समाज के विभिन्न वर्गों के अलग अलग लोगों का आरक्षण पद्धति के प्रति अलग अलग मत है कोई कहता है होना चाहिए कोई कहता है नहीं होना चाहिए परंतु हमारा मानना है कि समाज में ऐसी परिकल्पना की आवश्यकता है जिससे समाज के वैसे लोग चाहे वह किसी जाति, धर्म, समुदाय से संबंध रखते हो जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से वंचित रह गए हैं उन सभी वंचितों को साथ लाकर कदम से कदम मिलाकर साम्यवादी सोच के साथ सर्वसमता की भावना से संबंधित व अधिकारित कर राष्ट्र निर्माण में भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
सन 1882 में महात्मा ज्योति राव फुले ने वंचित के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की वकालत की थी। सर्वप्रथम 1901 में भारत में छत्रपति शाहूजी महाराज ने वंचितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की शुरुआत की जिससे वह समाज की मुख्यधारा में आकर अपना चरमोत्कर्ष कर सामाजिक भागीदारी सुनिश्चित कर सकें। आजादी के बाद वंचित समुदाय के लोगों के लिए 10 वर्षों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई जिसके बाद लगातार इसकी सीमा सीमा को बढ़ाया जाता रहा। 1979 में मोरारजी देसाई वाले जनता पार्टी की सरकार ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में “मंडल कमीशन” गठित किया तदुपरांत आयोग ने आर्थिक स्थिति को दरकिनार कर जातिगत मात्र 1257 समुदाय को पिछड़ा घोषित करते हुए 22% आरक्षण निर्धारित कि परन्तु 1980 में पिछड़ी जाति की हिस्सेदारी शामिल करते हुए 22% से बढ़ाकर 49.5% आरक्षण निर्धारित करने का सुझाव दिया जिससे पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण का प्रावधान किया गया, जिसे 1990 में बीपी सिंह की सरकार ने इस सुझाव को लागू किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस व्यवस्था को वैध ठहराते हुए इसकी सीमा 50% से अधिक ना हो का सुझाव दिया।
आरक्षण हमारे यशस्वी मनीषियों की देश के गरीब आर्तजनों को समाज की मुख्यधारा में लाने की सर्वोत्कृष्ट कल्पना थी परंतु देश की आजादी के शुरुआती वर्षों को छोड़ दें तो जैसे-जैसे समय गुजरता गया लोकतंत्र के दूरदर्शी स्वार्थी राजनेताओं के सरकार में कल्पांत तक बने रहने की लालसा ने इसे अपना मजबूत हथियार बनाना शुरू किया। आरक्षण के आधार पर भारतीय समाज को बांटने की शुरुआत करने लगे व अंग्रेजों की तरह “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाने लगे। जबकि आरक्षण के उद्देश्य में कहीं भी जाति विशेष की बात नहीं की गई थी सिर्फ वंचितों की बात थी चाहे वो किसी भी जाति धर्म समुदाय से संबंध क्यों ना रखता हो। क्योंकि वंचितों की कोई जाति नहीं होती। गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा जाति देख कर नहीं आती। जिन शब्दों के उच्चारण मात्र से जनमानस का हृदय स्पंदित हो उठता था और एक जुनून सा जाग उठता था, ह्रदय कल्पित होता था आज इन शब्दों का बखूबी इस्तेमाल कर जनमानस को ठगने का काम हो रहा है जबकि “दलित शब्द” का सरोकार उन लोगों से है जो अल्पसंख्यक हैं शोषित व गरीब हैं चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, समुदाय से क्यों ना संबंध रखते हों मगर इसे जाति सूचक का ब्रांड एंबेस्डर बना दिया गया।
जबकि आरक्षण का आधार वह होना चाहिए था जिसमें सभी जाति, धर्म, समुदाय के वंचितों को इसका लाभ मिलता है परंतु ऐसा शुरुआती दौर से ही नहीं हुआ। सरकार में बने रहने के लिए इसका भरपूर उपयोग किया जाता रहा।भारत में 2700 से अधिक जातियां हैं परंतु मंडल कमीशन ने मात्र 1270 जातियों को हीं शुरुआती दौर में आरक्षण के दायरे में रखा, परिणाम स्वरूप यह हुआ कि शुरुआती दिनों में ही जिसने आरक्षण का लाभ ले लिया आज भी ज्यादातर उन्हीं के वंसज लाभ ले रहे हैं यानी “आरक्षण में परिवारवाद” अर्थात उस जाति के गरीब भी आरक्षण का लाभ लेने से वंचित होते चले गए। जाति के नाम पर कुछ मुट्ठी भर लोग आरक्षण का लाभ लेते आ रहे हैं तथा उन्हीं की अगली पीढ़ी लाभ लेने में आगे है। गरीब व उनके बच्चों का समय तो जीविकोपार्जन में ही बीत जाता है नहीं तो आज आजादी के 73 साल बाद भी आरक्षण से लाभान्वित पिछड़ी जातियों का समुचित विकास क्यों नहीं हो पाया ?
हद तो तब हो गई जब आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की सीमा को समय-समय पर बढ़ाया जाने लगा। सर्वप्रथम तमिलनाड सरकार द्वारा गठित “ सतनाथन आयोग ” ने 1970 में क्रीमी लेयर की सिफारिश की थी। 1993 में इंदिरा सहनी बनाम UOI के केस में सुप्रीम कोर्ट एक लाख रुपया सालाना आय से अधिक वाले को क्रीमी लेयर में रखा। तदुपरांत समय समय पर इसकी सीमा बढ़ाए जाने लगे जो 2004 में 2.5 लाख, 2008 में 4.5 लाख, 2013 में 6 लाख और अक्टूबर 2015 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इसे 15 लाख प्रतिवर्ष आय वाले परिवार को भी आरक्षण का लाभ देने की संस्तुति की। वर्तमान सरकार ने इसे 2017 में 8 लाख करने की घोषणा की, जो केवल ओबीसी आरक्षण पर ही लागू होती है अनुसूचित जाति व जनजाति आरक्षण पर नहीं।
जबकि स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की सरकारों को आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार बनाना था जिस मापदंड के अंतर्गत राष्ट्र के सभी जाति, धर्म, समुदाय के वंचित तबके के लोगों को सामाजिक न्याय मिलता और राष्ट्रीय कल्याण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते। परंतु हुआ इसके ठीक विपरीत, आर्थिक आरक्षण को दरकिनार कर जातिगत आधार को मापदंड बनाया गया। आजादी के 73 साल बाद आज की स्थिति काफी भयावह हो गई है, देश की जनता जाति के आधार पर टुकड़ों में बट गई, सामाजिक सौहार्द, भाईचारा खतरे में पड़ गया। जबकि हमारे महापुरुषों को पता होना चाहिए था कि आरक्षण का यह जातिगत मापदंड भविष्य में देश की एकता के लिए खतरा होगा तब पर भी सरकार में बने रहने की लालसा से उन्होंने इसे महत्वपूर्ण हथकंडा बनाया। समय के साथ बहुत से नेता राष्ट्र कल्याण और विकास की राजनीति के बगैर जातिगत राजनीति कर अपने राजनैतिक कैरियर में शीर्ष पर गए और अपने अपात्र वंशजों के लिए अकूत संपत्ति संग्रहित करने लगे। जबकि जातिगत राजनीति के पैदावार नेता को उनके जात की प्रगति से कम अपनी प्रगति ज्यादा प्यारी लगने लगे नहीं तो आजादी के 73 साल बाद भी पिछड़ी जाति में उतना उत्थान नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। वर्तमान के नीति निर्धारक ने “आरक्षण में परिवारवाद” बनाए रखने के लिए समय-समय पर क्रीमी लेयर की सीमा में बढ़ोत्तरी कर उसी जाति के आर्तजनों का गला घोटा।
अब आज स्थिति अत्यंत हीं दुष्कर हो गई है, कोई भी लोकतांत्रिक सरकार आरक्षण के संदर्भ में बदलाव करने की नहीं सोच सकता, सबको सरकार में बने रहने की परी है। जिसप्रकार क्षेत्रीय नेताओं का अभ्युदय सिर्फ जाती, धर्म, समुदाय के नाम पर हो रहा है ये परिस्थिति न केवल राष्ट्र की एकता और अखंडता बल्कि सम्प्रभुता के लिए भी खतरा बनते जा रहा है। ऐसे नेतृत्वकर्ता अपने को सम्बंधित समुदाय के मूर्ख भोली भाली अबोध जनता के सामने अपने को उसका रहनुमा बताकर उन्हें बड़गला रहे हैं व भारतवर्ष की अखंडता को खंडित करने का काम ले रहे हैं। वर्तमान में अधिकतर नेता सिर्फ जातिवाद की राजनीति कर रहे हैं,किसी को राष्ट्रीय कल्याण से कोई सरोकार नहीं। कोई कहता आरक्षण खत्म किया जाए, कोई कहता है आरक्षण का दायरा और बढ़ाया जाए, किसी को आधारभूत समस्या व सही लोगों को इसका लाभ मिले इससे कोई सरोकार नहीं। जबकि जरूरत है समय के साथ आरक्षण के आधार प्रणाली में वैज्ञानिक सोच के साथ संशोधन कर इसे एक सहारा के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जिससे अब सभी जाति, धर्म, समुदाय के गरीब लोगों का समान विकास हो व एक साम्यवादी समाज की स्थापना हो सके और परस्पर भाईचारा सामाजिक सौहार्द बना रहे जिससे राष्ट्रीय कल्याण की भावना सुदृढ़ होगी जिससे राष्ट्र दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करेगा तथा विश्व में एक नया कीर्तिमान स्थापित करेगा। आरक्षण पद्धति का आधार अब आर्थिक हो जिससे सभी सभी जाति धर्म समुदाय के गरीब इसका लाभ ले सकें, जैसे एक लाख तक वार्षिक आय वाले को 27% , दो लाख तक आय वाले को 12%, तीन लाख तक आय वाले को 7% व चार लाख तक आय वाले को 4% तक का लाभ मिले तथा इससे अधिक वार्षिक आय वाले को किसी प्रकार के आरक्षण का लाभ न मिले जिससे “आरक्षण” हमेशा एक सहारा हो न कि भोग का जरिया बन जाय। यदि ऐसा न हो पाया तो सामाजिक सौहार्दपूर्ण भाईचारे के साथ आजादी की शताब्दी वर्ष मनाना भी हमें लगता है कि मुश्किल हो जाएगा। अतः इस संदर्भ में अब समाज के शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नौकरशाही व्यवस्था, विधायिका व न्यायपालिका को मिलकर इसपर मंथन कर एक साम्यवादी समाज की स्थापना पर सर्वसमता से चिंतन कर यथाशीघ्र कोई ठोस निदान निकालना चाहिए।
"परिस्थितियों से जूझते हुए चेहरे
माथे की सिकुड़न, आँखों की नमीं
सूखे होठों पर एक चुप्पी थमीं
जीवन के संघर्ष की एक बेबस कहानी
एक तिनका, एक लत्ता, एक दाना।
और... दो बूँद पानी... "
जय हिंद
अक्षय आनन्द श्री ,
#अभ्युदय_से_चरमोत्कर्ष
#एपिसोड--03
28.10.2018
#आरक्षण: भोग या सहारा
किसी ने क्या खूब कहा है :~
“सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम्।
दैवायतं कुले जन्मः मयायत्तं तु पौरुषम्॥“
अर्थात - मैं चाहे सूत हूँ या सूतपुत्र, अथवा कोई और। किसी कुल-विशेष में जन्म लेना यह तो दैव के अधीन है, मेरे पास जो पौरुष है उसे मैने पैदा किया है।
समाज के विभिन्न वर्गों के अलग अलग लोगों का आरक्षण पद्धति के प्रति अलग अलग मत है कोई कहता है होना चाहिए कोई कहता है नहीं होना चाहिए परंतु हमारा मानना है कि समाज में ऐसी परिकल्पना की आवश्यकता है जिससे समाज के वैसे लोग चाहे वह किसी जाति, धर्म, समुदाय से संबंध रखते हो जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से वंचित रह गए हैं उन सभी वंचितों को साथ लाकर कदम से कदम मिलाकर साम्यवादी सोच के साथ सर्वसमता की भावना से संबंधित व अधिकारित कर राष्ट्र निर्माण में भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
सन 1882 में महात्मा ज्योति राव फुले ने वंचित के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की वकालत की थी। सर्वप्रथम 1901 में भारत में छत्रपति शाहूजी महाराज ने वंचितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की शुरुआत की जिससे वह समाज की मुख्यधारा में आकर अपना चरमोत्कर्ष कर सामाजिक भागीदारी सुनिश्चित कर सकें। आजादी के बाद वंचित समुदाय के लोगों के लिए 10 वर्षों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई जिसके बाद लगातार इसकी सीमा सीमा को बढ़ाया जाता रहा। 1979 में मोरारजी देसाई वाले जनता पार्टी की सरकार ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में “मंडल कमीशन” गठित किया तदुपरांत आयोग ने आर्थिक स्थिति को दरकिनार कर जातिगत मात्र 1257 समुदाय को पिछड़ा घोषित करते हुए 22% आरक्षण निर्धारित कि परन्तु 1980 में पिछड़ी जाति की हिस्सेदारी शामिल करते हुए 22% से बढ़ाकर 49.5% आरक्षण निर्धारित करने का सुझाव दिया जिससे पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण का प्रावधान किया गया, जिसे 1990 में बीपी सिंह की सरकार ने इस सुझाव को लागू किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस व्यवस्था को वैध ठहराते हुए इसकी सीमा 50% से अधिक ना हो का सुझाव दिया।
आरक्षण हमारे यशस्वी मनीषियों की देश के गरीब आर्तजनों को समाज की मुख्यधारा में लाने की सर्वोत्कृष्ट कल्पना थी परंतु देश की आजादी के शुरुआती वर्षों को छोड़ दें तो जैसे-जैसे समय गुजरता गया लोकतंत्र के दूरदर्शी स्वार्थी राजनेताओं के सरकार में कल्पांत तक बने रहने की लालसा ने इसे अपना मजबूत हथियार बनाना शुरू किया। आरक्षण के आधार पर भारतीय समाज को बांटने की शुरुआत करने लगे व अंग्रेजों की तरह “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाने लगे। जबकि आरक्षण के उद्देश्य में कहीं भी जाति विशेष की बात नहीं की गई थी सिर्फ वंचितों की बात थी चाहे वो किसी भी जाति धर्म समुदाय से संबंध क्यों ना रखता हो। क्योंकि वंचितों की कोई जाति नहीं होती। गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा जाति देख कर नहीं आती। जिन शब्दों के उच्चारण मात्र से जनमानस का हृदय स्पंदित हो उठता था और एक जुनून सा जाग उठता था, ह्रदय कल्पित होता था आज इन शब्दों का बखूबी इस्तेमाल कर जनमानस को ठगने का काम हो रहा है जबकि “दलित शब्द” का सरोकार उन लोगों से है जो अल्पसंख्यक हैं शोषित व गरीब हैं चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, समुदाय से क्यों ना संबंध रखते हों मगर इसे जाति सूचक का ब्रांड एंबेस्डर बना दिया गया।
जबकि आरक्षण का आधार वह होना चाहिए था जिसमें सभी जाति, धर्म, समुदाय के वंचितों को इसका लाभ मिलता है परंतु ऐसा शुरुआती दौर से ही नहीं हुआ। सरकार में बने रहने के लिए इसका भरपूर उपयोग किया जाता रहा।भारत में 2700 से अधिक जातियां हैं परंतु मंडल कमीशन ने मात्र 1270 जातियों को हीं शुरुआती दौर में आरक्षण के दायरे में रखा, परिणाम स्वरूप यह हुआ कि शुरुआती दिनों में ही जिसने आरक्षण का लाभ ले लिया आज भी ज्यादातर उन्हीं के वंसज लाभ ले रहे हैं यानी “आरक्षण में परिवारवाद” अर्थात उस जाति के गरीब भी आरक्षण का लाभ लेने से वंचित होते चले गए। जाति के नाम पर कुछ मुट्ठी भर लोग आरक्षण का लाभ लेते आ रहे हैं तथा उन्हीं की अगली पीढ़ी लाभ लेने में आगे है। गरीब व उनके बच्चों का समय तो जीविकोपार्जन में ही बीत जाता है नहीं तो आज आजादी के 73 साल बाद भी आरक्षण से लाभान्वित पिछड़ी जातियों का समुचित विकास क्यों नहीं हो पाया ?
हद तो तब हो गई जब आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की सीमा को समय-समय पर बढ़ाया जाने लगा। सर्वप्रथम तमिलनाड सरकार द्वारा गठित “ सतनाथन आयोग ” ने 1970 में क्रीमी लेयर की सिफारिश की थी। 1993 में इंदिरा सहनी बनाम UOI के केस में सुप्रीम कोर्ट एक लाख रुपया सालाना आय से अधिक वाले को क्रीमी लेयर में रखा। तदुपरांत समय समय पर इसकी सीमा बढ़ाए जाने लगे जो 2004 में 2.5 लाख, 2008 में 4.5 लाख, 2013 में 6 लाख और अक्टूबर 2015 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इसे 15 लाख प्रतिवर्ष आय वाले परिवार को भी आरक्षण का लाभ देने की संस्तुति की। वर्तमान सरकार ने इसे 2017 में 8 लाख करने की घोषणा की, जो केवल ओबीसी आरक्षण पर ही लागू होती है अनुसूचित जाति व जनजाति आरक्षण पर नहीं।
जबकि स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की सरकारों को आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार बनाना था जिस मापदंड के अंतर्गत राष्ट्र के सभी जाति, धर्म, समुदाय के वंचित तबके के लोगों को सामाजिक न्याय मिलता और राष्ट्रीय कल्याण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते। परंतु हुआ इसके ठीक विपरीत, आर्थिक आरक्षण को दरकिनार कर जातिगत आधार को मापदंड बनाया गया। आजादी के 73 साल बाद आज की स्थिति काफी भयावह हो गई है, देश की जनता जाति के आधार पर टुकड़ों में बट गई, सामाजिक सौहार्द, भाईचारा खतरे में पड़ गया। जबकि हमारे महापुरुषों को पता होना चाहिए था कि आरक्षण का यह जातिगत मापदंड भविष्य में देश की एकता के लिए खतरा होगा तब पर भी सरकार में बने रहने की लालसा से उन्होंने इसे महत्वपूर्ण हथकंडा बनाया। समय के साथ बहुत से नेता राष्ट्र कल्याण और विकास की राजनीति के बगैर जातिगत राजनीति कर अपने राजनैतिक कैरियर में शीर्ष पर गए और अपने अपात्र वंशजों के लिए अकूत संपत्ति संग्रहित करने लगे। जबकि जातिगत राजनीति के पैदावार नेता को उनके जात की प्रगति से कम अपनी प्रगति ज्यादा प्यारी लगने लगे नहीं तो आजादी के 73 साल बाद भी पिछड़ी जाति में उतना उत्थान नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। वर्तमान के नीति निर्धारक ने “आरक्षण में परिवारवाद” बनाए रखने के लिए समय-समय पर क्रीमी लेयर की सीमा में बढ़ोत्तरी कर उसी जाति के आर्तजनों का गला घोटा।
अब आज स्थिति अत्यंत हीं दुष्कर हो गई है, कोई भी लोकतांत्रिक सरकार आरक्षण के संदर्भ में बदलाव करने की नहीं सोच सकता, सबको सरकार में बने रहने की परी है। जिसप्रकार क्षेत्रीय नेताओं का अभ्युदय सिर्फ जाती, धर्म, समुदाय के नाम पर हो रहा है ये परिस्थिति न केवल राष्ट्र की एकता और अखंडता बल्कि सम्प्रभुता के लिए भी खतरा बनते जा रहा है। ऐसे नेतृत्वकर्ता अपने को सम्बंधित समुदाय के मूर्ख भोली भाली अबोध जनता के सामने अपने को उसका रहनुमा बताकर उन्हें बड़गला रहे हैं व भारतवर्ष की अखंडता को खंडित करने का काम ले रहे हैं। वर्तमान में अधिकतर नेता सिर्फ जातिवाद की राजनीति कर रहे हैं,किसी को राष्ट्रीय कल्याण से कोई सरोकार नहीं। कोई कहता आरक्षण खत्म किया जाए, कोई कहता है आरक्षण का दायरा और बढ़ाया जाए, किसी को आधारभूत समस्या व सही लोगों को इसका लाभ मिले इससे कोई सरोकार नहीं। जबकि जरूरत है समय के साथ आरक्षण के आधार प्रणाली में वैज्ञानिक सोच के साथ संशोधन कर इसे एक सहारा के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जिससे अब सभी जाति, धर्म, समुदाय के गरीब लोगों का समान विकास हो व एक साम्यवादी समाज की स्थापना हो सके और परस्पर भाईचारा सामाजिक सौहार्द बना रहे जिससे राष्ट्रीय कल्याण की भावना सुदृढ़ होगी जिससे राष्ट्र दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करेगा तथा विश्व में एक नया कीर्तिमान स्थापित करेगा। आरक्षण पद्धति का आधार अब आर्थिक हो जिससे सभी सभी जाति धर्म समुदाय के गरीब इसका लाभ ले सकें, जैसे एक लाख तक वार्षिक आय वाले को 27% , दो लाख तक आय वाले को 12%, तीन लाख तक आय वाले को 7% व चार लाख तक आय वाले को 4% तक का लाभ मिले तथा इससे अधिक वार्षिक आय वाले को किसी प्रकार के आरक्षण का लाभ न मिले जिससे “आरक्षण” हमेशा एक सहारा हो न कि भोग का जरिया बन जाय। यदि ऐसा न हो पाया तो सामाजिक सौहार्दपूर्ण भाईचारे के साथ आजादी की शताब्दी वर्ष मनाना भी हमें लगता है कि मुश्किल हो जाएगा। अतः इस संदर्भ में अब समाज के शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नौकरशाही व्यवस्था, विधायिका व न्यायपालिका को मिलकर इसपर मंथन कर एक साम्यवादी समाज की स्थापना पर सर्वसमता से चिंतन कर यथाशीघ्र कोई ठोस निदान निकालना चाहिए।
"परिस्थितियों से जूझते हुए चेहरे
माथे की सिकुड़न, आँखों की नमीं
सूखे होठों पर एक चुप्पी थमीं
जीवन के संघर्ष की एक बेबस कहानी
एक तिनका, एक लत्ता, एक दाना।
और... दो बूँद पानी... "
जय हिंद
अक्षय आनन्द श्री ,

🙏 बहुत बड़िया sir👍
ReplyDeleteधन्यवाद 🤗
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