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छठ महापर्व : नारी शक्ति की पूजा, एपिसोड:- 66

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सांस्कृतिक पृष्टभूमि में आर्यों की #सूर्योपासना की शास्त्रोक्त परम्परा से कुछ भिन्न रूप में सूर्य के #सविता रूप की पूजा शुरू हुई। ऋग्वेद में सूर्य को “जगत की आत्मा” कहा गया है। जबकि सूर्योपनिषद में सूर्य को ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का ही रूप कहा गया है। भारतीय समाज मे शुरू से ही सूर्य को आरोग्य प्रदान करने वाला एक प्रत्यक्ष देवता माना जाता रहा है। भारतीय परम्परा के अनुसार सूर्य की दो पत्नियां हैं - ऊषा और प्रत्युषा, सूर्य की पत्नी होने के साथ उनकी दो प्रमुख शक्तियां भी हैं। सूर्य-षष्ठी के अवसर पर मनाए जाने वाले लोकपर्व को छठ पर्व कहा जाता है। छठ, दरअसल,सूर्यदेव की उपासना के कहीं अधिक उनकी शक्तियों की उपासना का एक लोकपर्व है।  प्रमुख रूप से सूर्यदेव की दोनों शक्तियों ऊषा एवं प्रत्युषा की उपासना किये जाने के कारण सूर्य-षष्ठी पर्व को समान्यतः “छठ मैया की पूजा” के नाम से जाना जाता है।  ऋग्वैदिककाल से ही 'छठ मैया' लोककल्याणकरी देवी के रूप में पूजी जाती रही है। कार्तिक शुक्लपक्ष षष्ठी को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देते हुए छठ-व्रती सूर्य व प्रत्य...

हिंदुत्व’ और ‘हिन्दू धर्म’

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‘हिंदुत्व’ और ‘हिन्दू धर्म’  एपिसोड:-65 हिंदुत्व एक ऐसा शब्द है, जो संपूर्ण मानवजाति के लिए आज भी असामान्य स्फूर्ति तथा चैतन्य का स्रोत बना हुआ है।   ‘हिंदुत्व’ कोई सामान्य शब्द नहीं है। यह एक परंपरा है। एक इतिहास है। यह इतिहास केवल धार्मिक अथवा आध्यात्मिक इतिहास नहीं है। अनेक बार ‘हिंदुत्व’ शब्द को उसी के समान किसी अन्य शब्द के समतुल्य मानकर बड़ी भूल की जाती है। वैसा यह इतिहास नहीं है। वह एक सर्वसंग्रही इतिहास है। ‘हिंदू धर्म’ यह शब्द ‘हिंदुत्व’ से ही उपजा उसी का एक रूप है, उसी का एक अंश है…।  यहां इतना बताना ही पर्याप्त होगा कि ‘हिंदू धर्म’ से समान्यतः जो बोध होता है, वह ‘हिंदुत्व’ के अर्थ से भिन्न है। किसी अध्यात्मिक अथवा भक्ति संप्रदाय के मतों के अनुसार निर्मित अथवा सीमित आचार-विचार विषयक नीति-नियमों के शास्त्र को ही ‘ हिंदू धर्म ’ कहा जाता है। ‘ धर्म ’ शब्द का अर्थ भी यही होता है। ‘ हिंदुत्व ’ शब्द में एक राष्ट्र तथा हिंदू जाति के अस्तित्व का तथा पराक्रम के सम्मिलित होने का बोध होता है। इस शब्द ने लाखों लोगों के मानस को किस प्रकार प्रभावित...

अनेकान्तवाद

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अनेकान्तवाद ,  एपिसोड–64 अनेकान्तवाद दर्शन की उपादेयता यह है कि वह मनुष्य को दुराग्रही होने से बचाता है, उसे यह शिक्षा देता है कि केवल तुम ही ठीक हो, ऐसी बात नहीं; शायद, वे लोग भी सत्य ही कह रहे हों, जो तुम्हारा विरोध करते हैं। यह दर्शन मनुष्य के भीतर बौद्धिक अहिंसा को प्रतिष्ठित करता है, संसार में जो अनेक मतवाद फैले हुए हैं, उनके भीतर सामंजस्य को जन्म देता है, तथा वैचारिक भूमि पर जो कोलाहल और कटुता उत्पन्न होती है, उससे विचारकों के मस्तिष्क को मुक्त रखता है। अपने ऊपर एक प्रकार का विरल संदेह, विरोधी और प्रतिपक्षी के मतों के लिए प्रकार की श्रद्धा तथा यह भाव कि कदाचित प्रतिपक्षी का मत ही ठीक हो, यह एक अनेकान्तवादी मनुष्य के प्रमुख लक्षण हैं। गाँधी जी कहते हैं ; चूंकि अनेकान्तवाद से परस्पर विरोधी बातों के बीच सामंजस्य आता है तथा विरोधियों के प्रति भी आदर की वृद्धि होती है, मेरा अनुभव है कि अपनी दृष्टि से मैं सदा सत्य ही होता हूं किंतु, मेरे इमानदार आलोचक तब भी मुझमें गलती देखते हैं। पहले मैं अपने को सही और उन्हें अज्ञानी मान लेता था। किंतु अब मैं मानता हूं कि अपनी-अपनी जगह...

सुनो! सुनना जरूर (कविता संग्रह)

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सुनो! सुनना जरूर    एपिसोड-63 सुनो.! तुम्हीं से कह रहा सुना है कभी, झरने की आवाज, पत्तों की खड़खड़ाहट, पक्षियों की चहचहाहट, सुनना कभी ये भी कुछ कहते हैं ऐसे सुनना जैसे फिर न सुनना पड़े डूब कर सुनना उन तरंगों में सुनना ऐसे जैसे खो जाना स्वरों में की वो तुमसे ही कुछ कह रहे हों हाँ, तुमसे हीं तुम सुनोगे उसकी वेदना उसकी छटपटाहट उसकी उद्विग्नता की जैसे कहीं  स्वयं को समर्पित करने की चाह भरी हो उसमें उसके रोम-रोम जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहे हों किसी का अंश उसमें रह गया हो जैसे कोई पुकारता जैसे उसी अंतहीन तरंगों  के उद्गम स्थल को ढूंढती कह रही हो, झरने पत्ते पक्षी की अकुलाहट जैसे एक नाद में हीं सबकुछ कह देना चाह रही हो, सुनना, जरूर सुनना जब सुनोगे (डूबकर) तो जानोगे  हर कोई किसी को पाने के लिए ही अनवरत अनहद अविराम चल रहा है की अगले कदम वो मिल जाएगा जिसकी आश है। सुनो.! तुम्हीं से कह रहा जरूर सुनना जो कुछ सुनना उस अनकहे को मुझसे कहना की मैं समझ दूँ उन स्वरों को उन तरंगों को क्योंकि… मैं सुनता हूँ अक्सर सुनता हूँ जब भी अकेला तुम्हें सोचता हूँ सोचता हूँ, मेरा कह...

करमुक्त साहित्य

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करमुक्त साहित्य : एपिसोड- 62 साम्प्रदायिक, धार्मिक व जातिगत कट्टर उन्माद के कारण लोग अपने मूल अधिकार, कर्तव्य व मानवीय गुणों को भूलते जा रहे हैं जोकि मानव-सभ्यता की पीढ़ी-दर-पीढ़ी गतिशीलता व अनवरतता के लिए भयावह हैं। मुझे नहीं पता कि आज लोग सही-गलत में फर्क करना भूलते जा रहे हैं या फर्क करना नहीं चाहते या फिर फर्क करने से डरते हैं। सबसे बड़ी बिडम्बना आज के साहित्य जगत के नवोदित साहित्यकारों की है, उनकी कलम रचना से पहले सामुदायिक रूप से अपना एक सामाजिक पक्ष निर्धारित कर लेते हैं, जिससे उनकी लेखनी सर्वस्वीकार्य नही रह जाती, पढ़कर एक पक्ष खुश होता है तो दूसरा पक्ष आहत। वो ऐसा क्यों करते हैं, ऐसा करने पर उनके किस हितों की पूर्ति होती है.. वगैरह..वगैरह...लेकिन जो भी हो,सामाजिक समरसता सूखती जा रही है। हालाँकि हमारे साहित्यिक जगत के पूर्वजों की रचना आज भी बहुत अच्छी स्थिति में उपलब्ध है,जो आज भी मानवीय मूल्यों का संवर्धन करते हैं, जिसे पढ़कर लोगों में वर्तमान परिदृश्य पर चिंतन व सही राह समायोजन की वृत्ति जीवंत होती हैं। लेकिन व्यवसायिक हितों के कारण आमजन तक ऐसे साहित्यिक कृतियों ...

समाज और सवाल : नारी अस्मिता

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समाज और सवाल : नारी अस्मिता ,  एपिसोड- 61 आये दिनों हर रोज महिलाओं के शोषण व दुष्कर्म की घटनाओं ने मानवता व जीने के लिए जरूरी आदर्शों को ताड़-ताड़ कर रही हैं। इस घटनाओं में नृशंसता की वृत्ति बढ़ती जा रही है। शोषित और शोषक के उम्र को लेकर हमारा समाज विह्वल है।  ऐसे में हमे समाजिक व्यवस्था के पुनर्मूल्यांकन पर विस्तृत सामाजिक सर्वेक्षण की जरूरत है। कुछ सवाल हैं मेरे मन मे जो हर समाज में जाकर वहां रह रहे लोगों से उनके उत्तर जानने चाहिए जिससे तथाकथित समाज की दिशा और दशा का आकलन हो सके; इतनी कम उम्र में ऐसे विभत्स वारदात को अंजाम देने की सोच का पोषण कहाँ से मिल रहा है.?? इस घृणित अपराध के अपराधियों को तो त्वरित सजा मिले हीं,साथ ही सम्बंधित समाज की भी सोशल ऑडिट हो कि; *वो अपने बच्चों का पोषण कैसे करते हैं? *समाज के पुरुष समाज मे चौक-चौराहे पर, गली मोहल्ले में संवाद की क्या शैली है? *समाज में युवा की गतिविधि कैसी है, उनकी रुचि किस कार्यों में है? *मोबाइल नेटवर्किंग साइट्स का उपयोग समाज में किस प्रकार हो रहा है? *लोग अपने बच्चों के गतिविधियों का मूल्यांकन कैसे करते हैं? *समाज के पुरुष (ब...

आदर्शों का आत्मबोध

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आदर्शों का आत्मबोध ,  एपिसोड: 60 कभी-कभी मेरे मन मे आता है कि वर्तमान में भौतिक विकास के सभी कार्य रोक देने चाहिए जैसे सड़क निर्माण, नए पुल-हवाई अड्डे, प्राकृतिक तेल सोधन/भूमि उत्खनन व अन्य और इसमें लगे लोगों को समाज मे व्याप्त विकृतियों जैसे जलवायु परिवर्तन, नैतिकता, मानव-आदर्शों के प्रति आत्मबोध के प्रति जागरूक करने में लगा दें और सरकार व जुड़ी संस्थाएं केवल लोकहित हेतु बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा व सुरक्षा के लिए काम करें। क्योंकि ऐसा महसूस हो रहा है कि आजादी के बाद लगातार 75 वर्षों से विकास के काम करते-करते लगभग हर संस्थायें थक गई हों और जुड़े लोगों की मति मारी गई है। ऐसी परिस्थितियों में वैसे लोग,जिनका मन-कर्म-वचन दिन-रात जनहित के प्रति ओतप्रोत होता है,वो बड़ी असमंजस के साथ जीते हैं। जो लोग समाज व पारिस्थितिकी की जटिलताओं को समझते हैं, वे अपने सम्बोधन,लेखन व अन्य गतिविधियों से समाज व सरकार को आगाह करते रहते हैं, पर सिस्टम सुधरता ही नहीं।