करमुक्त साहित्य

करमुक्त साहित्य : एपिसोड- 62



साम्प्रदायिक, धार्मिक व जातिगत कट्टर उन्माद के कारण लोग अपने मूल अधिकार, कर्तव्य व मानवीय गुणों को भूलते जा रहे हैं जोकि मानव-सभ्यता की पीढ़ी-दर-पीढ़ी गतिशीलता व अनवरतता के लिए भयावह हैं।

मुझे नहीं पता कि आज लोग सही-गलत में फर्क करना भूलते जा रहे हैं या फर्क करना नहीं चाहते या फिर फर्क करने से डरते हैं।

सबसे बड़ी बिडम्बना आज के साहित्य जगत के नवोदित साहित्यकारों की है, उनकी कलम रचना से पहले सामुदायिक रूप से अपना एक सामाजिक पक्ष निर्धारित कर लेते हैं, जिससे उनकी लेखनी सर्वस्वीकार्य नही रह जाती, पढ़कर एक पक्ष खुश होता है तो दूसरा पक्ष आहत।

वो ऐसा क्यों करते हैं, ऐसा करने पर उनके किस हितों की पूर्ति होती है.. वगैरह..वगैरह...लेकिन जो भी हो,सामाजिक समरसता सूखती जा रही है।

हालाँकि हमारे साहित्यिक जगत के पूर्वजों की रचना आज भी बहुत अच्छी स्थिति में उपलब्ध है,जो आज भी मानवीय मूल्यों का संवर्धन करते हैं, जिसे पढ़कर लोगों में वर्तमान परिदृश्य पर चिंतन व सही राह समायोजन की वृत्ति जीवंत होती हैं।

लेकिन व्यवसायिक हितों के कारण आमजन तक ऐसे साहित्यिक कृतियों की पहुँच दिन-ब-दिन बहुत कम होती जा रही है,जबकि साहित्यिक रचना आमजन को सस्ती व सर्वसुलभता से प्राप्त होने चाहिए थे

अतः लोकतांत्रिक सरकार को चाहिए कि कागज व किताबों (विशेष कर साहित्यिक किताबें जो मानवीयता को संवर्धित करते हों) को करमुक्त करें, जिससे सर्वसाधारण तक किताबों की पहुंच शुलभ हो, सभी पढ़ें, सभी जानकार हों, सही समझ विकसित हों।

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