#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड_19


                                   निवेदन
मानव संशाधन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में संशोधन के लिए अपने विचार देने हेतु आमंत्रण पर हमें अपने कौशल व अनुभवों को साझा करते हुए अत्यंत खुशी हो रही है। चिकित्सा सेवा शिक्षा को उत्कृष्ट बनाने के लिए "राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019" के पारा 16.8 में वर्णित सभी तथ्यों को हमने पढ़ा,जो कुछ मायने में काफी सुंदर व दूरदर्शी हैं। मगर कुछ तथ्यों को लेकर हमें बड़ा संशय भी हुआ। जिन नीतियों पर संशय हुआ उनके संशोधन हेतु उन सभी तथ्यों को एक जगह संकलित कर लिखने की हमें जरूरत महशुस हुई। हमारी प्रतिभा, ज्ञान व कौशल से यदि समाज के वंचित वर्गों का अभ्युदय न हो पाया, उनकी पीड़ा कम न हुई व उनका मार्गदर्शन न हो पाया तो हमारा कौशल, ज्ञान अपितु हमारे जीवन की सार्थकता किस काम की।
अतः हमें "आर्थिक विषमता और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019" लिखने की आवश्यकता हुई। इस किताब को लिखने का हेतु चिकित्सा सेवा शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना, चिकित्सा सेवा को उत्कृष्ट व सबकी पहुँच के अनुरूप बनाना और सबसे महत्वपूर्ण "विश्व पटल पर चिकित्सा जगत में भारत की उत्कृष्टता व चर्मोत्कर्ष सुनिश्चित करना" है। इस किताब को लिखने में श्रीमान कुणाल कृष्ण जी ने तथ्यात्मक दृष्टि से हमारी काफी मदद की, उनके प्रति हम आभार प्रगट करते हैं। अत्यंत कम समय मे लिखी गई इस किताब में कई त्रुटियाँ भी हो सकती हैं, अतः निवेदन है कि उन त्रुटियों को नजरअंदाज कर "मानवता और राष्ट्रकल्याण" के प्रति हमारी समर्पण भावना को समझ "राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019" चिकित्सा सेवा शिक्षा कि नीति में संशोधन की जाएं।
                                      विनीत

सबकी पीड़ा केसाथ व्यथा अपने मन की जो जोड़ सके
मुड़ सके जहां तक समय उसे निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके युगपुरुष वही सारे समाज का विहित धर्मगुरु होता है,
जो अपने प्रकाश से सबके मन के अंधकार को धोता है
                      ~ राष्ट्रकवि दिनकर जी



चिकित्सा  शिक्षा  का अर्थ वास्तविक मायने में  स्वास्थ्य  सेवा  शिक्षा  हीं  हो,  स्वास्थ्य  व्यापार  शिक्षा  नहीं। बेशक  चिकित्सा  शिक्षा  में  सुधार  का  प्रभाव  देश  में  स्वास्थ्य  सेवाओं  पर  आवश्यक  रूप  से  दिखाई  देना  चाहिए। चिकित्सा शिक्षा  के  लक्ष्य  और  मानक  "सभी  के  लिए  स्टेट  ऑफ  आर्ट  गुणवत्तापूर्ण  और  वाहन  करने  योग्य  स्वास्थ्य  सेवा"  के  दृष्टिकोण  से  तय  किए  जाने  चाहिए। चिकित्सा  शिक्षा  में  सुधार  देशभर  में  विशेषत:  ग्रामीण  क्षेत्रों  में  प्राथमिक  और  द्वितीयक  स्वास्थ्य  सेवा  गुणवत्ता  को  बढ़ाने  के  उद्देश्य  को  लक्षित  करके  होना  चाहिए।  इस  लक्ष्य  की  प्राप्ति  के  लिए  ग्रामीण  विद्यार्थियों  की  स्वास्थ्य  सेवा  शिक्षा  तक  पहुंच  बढ़ाना  और  स्वास्थ्य  सेवा  शिक्षा  की  लागत  को  कम  करना  सबसे  महत्वपूर्ण  कड़ी  है। जिसके  लिए  राष्ट्रीय  शिक्षा  नीति  में  सुधार  के  प्रयास   पारा  16.8 वें  बिंदुवार  वर्णित  किया  गया  है, जो  निम्न  है ;

★ P.16.8.1 एमबीबीएस  उपाधि  की  उच्च गुणवत्ता  को  सुनिश्चित  करना

★P.16.8.2 बहुलतावादी  स्वास्थ्य  सेवा  शिक्षा  और  उसका  अंतरण

★P.16.8.3 एमबीबीएस  शिक्षा  के  लिए  केंद्रीकृत  परीक्षा

★P.16.8.4  नर्सिंग  शिक्षा  और  नर्स  के  व्यवस्था  में  प्रगति

★P.16.8.5  किफायती  स्वास्थ्य  सेवा  प्रतिपादन  हेतु  सम्बद्ध  स्वास्थ्य  शिक्षा

★P.16.8.6 स्वास्थ्य  सेवा  में  विद्यार्थियों  की  संख्या  बढाना

★P.16.8.7 स्नातकोत्तर  शिक्षा का  विस्तार  स्वरूप

उपरोक्त  बिंदुओं  के  माध्यम  से  राष्ट्रीय  शिक्षा  नीति  ड्राफ्ट 2019  में  चिकित्सा  शिक्षा  को  भविष्य  में  और  भी  उत्कृष्ट  व  गरीबोन्मुखी  बनाने  की  जो  बात  कही  गई  है, मुझे  अपर्याप्त  लगती है । राष्ट्रीय  शिक्षा  नीति  में  जिन  तथ्यों  पर  चर्चा  हुई  है, मुझे  नहीं  लगता  कि  वास्तविक  रूप  में  गरीबों  का  चिकित्सा  सेवा  शिक्षा  में  चर्मोत्कर्ष  हो  पायेगा। ऐसा  लगता  है  कि  जिन  समुदाय  को  केंद्र  में  रखकर  नीति  बनाई  गई  है, उनसे  कोई  संवाद  नहीं  हो  पाया  है। जबकि  कोई  भी  नई  नीति  बनाने  से  पहले  पीड़ित  समुदाय  से  संवाद  भविष्य  में  नीति  की  सफलता  व  उत्कृष्टता  का  आधार  होता  है। अतः  वंचित  व  (हजारों)  पीड़ित  समुदाय  में  किये  वास्तविक  सर्वेक्षण, संवाद  व  खुद  के  अनुसन्धानिक  अनुभवों  के  ठोस  आधार  पर  राष्ट्र  के  गरीबों  के  स्वास्थ्य  और  गुणवत्तापूर्ण  व  सर्वसुलभ  चिकित्सा  सेवा  शिक्षा  हेतु  कुछ  सुझाव  दे  रहा  हूँ। जिसमें  गरीबों  हेतु  हमारी  चिंता  और  व्याख्या  के  माध्यम  से  राष्ट्र  की  चिकित्सा  सेवा  शिक्षा  में  संशोधन  के  लिए  गुंजाइश  और  कुछ  अन्य  अतिमहत्वपूर्ण  बिंदुओं  में  नए  सुझाव  जो  गरीबों  के  लिए  काफी  अहमियत  रखते  हैं  व  सही  मायने  में  चर्मोत्कर्ष  के  लिए  आवश्यक  हैं। राष्ट्रीय  शिक्षा  नीति  के  संदर्भ  में  हमारी  चिंताएं  निम्नलिखित  बिंदुवार  है  जिसका  हम  एक-एक  कर  आगे  हम  समाधान  हेतु  व्याख्या  करेंगे ;

(1) चिकित्सा  सेवा  शिक्षा  के  लिए  निर्धारित  ऊपरी  आयुसीमा ;

(2) विषमता पूर्ण ग्रामीण भारत और एन.टी.ए.  द्वारा  संचालित  एकल  प्रवेश  परीक्षा NEETug ;

(3) चिकित्सा  सेवा  शिक्षा  के  लिए  प्राइवेट  मेडिकल  कॉलेज  द्वारा  नामांकम  में  मनमानी  व  नियंत्रणविहीन  शुल्क  निर्धारण

(4) चिकित्सा  सेवा  शिक्षा  में  नामांकन  हेतु  आरक्षण  प्रणाली  में  वास्तविक  क्रीमीलेयर  का  अभाव

(5) चिकित्सा  सेवा शिक्षा में शोधकार्य व नैतिकता  का  अभाव और ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था

(6) विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षा में व्याप्त विषमता और विविधता पूर्ण भारत की आर्थिक विषमता

(7) ग्रामीण भारत के शैक्षणिक स्तर की दुर्दशा और उसमें चर्मोत्कर्ष के गुंजाइश


(1) चिकित्सा  सेवा  शिक्षा  के  लिए  निर्धारित  ऊपरी  आयुसीमा ;



महाशय, हमारा देश हिन्दुस्तान एक विकासशील देश है व विविधताओं से पूर्ण है। यहाँ लगभग 70 % आबादी गाँव में बसती है, यहां की साक्षरता दर हीं 25% है।आजादी के 70 साल बाद भी तमाम प्रकार की सामाजिक,आर्थिक व शैक्षणिक विषमताएं चरम पर हैं।
आदरणीय महोदय हम आपको बताना चाहते हैं कि 2013 में पहली बार चिकित्साशिक्षा के लिए (केवल MBBS~BDS सीटों के लिए) देश मे एकल प्रवेश परीक्षा NEETug का संचालन हुआ। जिसमें 15% राष्ट्रीय कोटा सीट व राज्य की 85% सीट के लिए अलग अलग पात्रताएँ थीं तथा राज्य कोटे के लिए कोई ऊपरी आयुसीमा नहीं थी। परिणामस्वरूप राज्य के सुदूर ग्रामीण परिवेश में अत्यंत सामाजिक,आर्थिक व शैक्षणिक विषमताओं का दंश झेलते हुए ग्रामीण अभ्यार्थी भी चयनित होते थे। ग्रामीण क्षेत्रों में हीं अपनी सेवाएं देते थे व अन्य विषमतापोषित अभ्यार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत बनते थे। जिससे वो मानवता व राष्ट्रकल्याण में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर संविधान की "हम भारत के लोग" की परिकल्पना पर गर्व करते थे। परन्तु वर्ष 2017 में परीक्षा का स्वरूप बदला व  NEETug को देश के सभी चिकित्साशिक्षा [जैसे-MBBS,BDS,VAT, AAYUSH (BAMS,BUMS,BHMS),YOGA व अन्य सभी] देने वाली संस्थओं(सरकारी,गैरसरकारी व विदेश) में प्रवेश के लिए अनिवार्य कर दिया गया। परीक्षा में प्रवेश के लिए ऊपरी आयुसीमा (सामान्य ~ 25 वर्ष, आरक्षित~30 वर्ष) निर्धारित कर दिया गया जिससे विषमतापोषित ग्रामीण अभ्यार्थि प्रवेश से वंचित हो गए। वर्ष 2017 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने mci act में ऊपरी आयुसीमा के लिए कोई प्रावधान न होने के कारण सभी को प्रवेश की अनुमति दी। परन्तु जनकल्याण के लिए अन्य संशोधन न कर MCI ने 23जनवरी 2018 को अपने "भारत का राजपत्र" के माध्यम से  MciAct1956 में ऊपरी आयुसीमा निर्धारण सम्बन्धित संशोधन को सूचित किया व NEETug में सम्मलित होने के लिए अनिवार्य कर दिया गया।

ग्रामीण क्षेत्र के विषमतापोषित अभ्यार्थी पर्याप्त आर्थिक व शैक्षणिक सुविधा के कारण अपने परिवार के लिये जीविकोपार्जन करते हुए साक्षात एकलव्य की भाँति अध्ययन करते हैं। अच्छी प्रारम्भिक व माध्यमिक शिक्षा तो दूर की बात, गाँव के लोग दैनिक जीवनयापन की मूलभूत आवश्यकताओं "भोजन,वस्त्र व आवास" को हीं संग्रहित करने में हीं दिन गुजर जाते हैं। अतः उचित शैक्षणिक मार्गदर्शन अभाव व आर्थिक विपन्नता के फलस्वरूप इन्हें प्रवेश परीक्षा में सफल होने में वक्त लग जाता है।

हमारे देश मे व्याप्त विषमता को आप उपरोक्त चित्र के माध्यम से समझ सकते हैं। ऐसे समझिए ;
A, B, C और D चारों अभ्यार्थी हैं और चारों को अपने लक्ष्य "मंदिर" तक पहुंचना है एक घण्टे में। अभ्यर्थी A, जिसके पास हेलीकॉप्टर की सुविधा (अत्यंत आर्थिक सुविधासम्पन्न) है वो तो 15 मिनट में पहुँच जाएगा, अभ्यार्थी B, जिसे कार है वह भी लगभग 30-45 मिनट में पहुँच जाएगा, अभ्यार्थी C जो पैदल हीं सड़क पर जा रहा है वह निर्धारित एक घण्टे में भी पहुंचे, सन्देह हीं है। मगर वह अभ्यार्थी D जो खाई में नदी (विषमता) को पार कर जंगल-झार, कांटे व जंगली जानवरों (सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक विषमता) से बचते/संघर्ष करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, वह तो अपने लक्ष्य को 4 घण्टे में भी नहीं पा सकता। लक्ष्यपथ की दुर्गमता को आँक पथिक अभ्यार्थी अपने लक्ष्य हीं न बनाये ? हाँ वो आधारभूत संसाधनविहीन है, पर वो बड़े ख्वाब न देखे ?

राष्ट्रकवि दिनकर जी कहते हैं;
उच्च अभिलाषाएं हीं तो मनुज मात्र का बल है
जो जगा जगा कर रखती हमें नित चंचल है
आगे जिसकी नजर नहीं भला वह कहाँ तक जाएगा
अधिक नहीं चाहता वह जन और अधिक कितना पायेगा

क्या हमारी राष्ट्रीय नेतृत्व, उनके भी ख्वाब पूरे हों, के लिए नीति नहीं बनाएगी ? चिकित्सा सेवा शिक्षा प्रणाली के लिए प्रवेश परीक्षा में नित नए नवोन्मेष कर वंचितों को वंचित करती रहेंगी ? आयुसीमा निर्धारन से पहले कोई ग्रामीण अभ्यार्थियों के बीच सोशल ऑडिट के माध्यम से संवाद कर  क्यूँ  नहीं पूछा जाता कि "25 वर्ष बीते कैसे ? तो कदाचित  विषमता पोषित ग्रामीण अभ्यार्थी अपने दर्द को बयां करते, और लगे भी क्यूँ न..? क्योंकि इन्हें तो अपने सपनों को पूरा करने को खर्च करने के लिए इनके पास इनकी आयु हीं होती है..!!  "शिक्षा" हमारी तीन आवश्यक आवश्यकता "भोजन, वस्त्र व आवास" के बाद चौथी आवश्यकता है। शिक्षा तो राष्ट्र के प्रगति की नींव होती हैं।
हमारा देश विषमताओं से भरा है। केंद्र सरकार को ऐसी शैक्षणिक नीतियां बनानी चाहिए जिससे ग्रामीणभारत के विषमतापोषित अभ्यार्थियों की शिक्षा सुनिश्चित हो। प्रवेश परीक्षाओं में कोई भी परिवर्तन करने से पहले इस बात पर गहन चर्चा हो कि ;
(१) अमुख परिवर्तन के लिए वंचित ग्रामीण भारत के अभ्यर्थी तैयार हैं कि नहीं ?
(२) राष्ट्र के सभी अभ्यार्थियों को उस परिवर्तन के अनुरूप संसाधन व प्रशिक्षण उपलभ्द हैं कि नहीं ?
यदि नहीं तो राष्ट्रीय नेतृत्व को नित नए नवोन्मेष कर विष्मतपोषितों की प्रतिभा को कुंद करने की नीति न बनाई जाएं। नवोन्मेष "वंचितों के अभ्युदय की नीति" को केंद्र में रख कर की जाएं। कदाचारमुक्त परीक्षाओं का संचालन हो। देश में चिकित्साशिक्षा के क्षेत्र में संसाधनों को विकसित कर सीटों की संख्या बढ़ाई जाएं। स्वास्थ्य~व्यवस्था व चिकित्साशिक्षा के संदर्भ में एक परिपक्व चिंतन के साथ नीतियां बनाये। विषमतापोषित ग्रामीण अभ्यार्थियों के लिए समानांतर प्रणाली हों जिससे हम चिकित्साशिक्षा प्राप्त करने से वंचित न रह जाएं।

अतः ग्रामीण भारत की चिंताजनक स्थिति में स्वरोजगारोन्मुख व रोजगारप्रदत चिकित्साशिक्षा प्राप्त करने के लिए देश की एकमात्र एकल प्रवेश परीक्षा NEETug में ऊपरी आयुसीमा निर्धारित न होने दें। चिकित्साशिक्षा को किसी खास समृद्ध वर्ग की शिक्षा न होने दें। जिससे ग्रामीण भारत के अभ्यर्थी भी अपनी प्रतिभा का चरम विकाश कर राष्ट्रकल्याण व जनकल्याण में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करें। "अंत्योदय" की परिकल्पना साकार हो तथा  सबको सामाजिक न्याय के साथ "सबको शिक्षा, अच्छी शिक्षा" की प्रतिबद्धता पूर्ण हो। हमारे देश की असहाय वंचित ग्रामीण अभ्यर्थियों को "हम भारत के लोग..." की परिकल्पना पर गर्व हो।



(2) विषमता पूर्ण ग्रामीण भारत और एन.टी.ए.  द्वारा  संचालित  एकल  प्रवेश  परीक्षा NEETug ;

विषमता पूर्ण ग्रामीण भारत की अकल्पनीय विभेदकारी सामाजिक स्थितियों के बीच सुबह सूरज उगने के साथ हीं जैव वनस्पतियों में हलचल शुरू हो जाती है, पत्ते अपनी बाँहें खोलने लगते हैं और फूल मुस्कुराने लगते हैं। इन्हीं के बीच एक और रंग खिलता है...बच्चों के स्कूल ड्रेस का रंग जो बिना किसी शोर~शराबे के मद्धम~मद्धम गाँव की पगडंडियाँ चलने लगता है। यह वह भारत है जहाँ बच्चे बासी भात या आधा पेट,बिना नास्ता और टिफिन के अधूरी किताब~काँपी को झोले में लटकाए सूरज के साथ दौर लगाते हैं। यह उदासीन भारत नहीं है,यह सपनों से भरा हुआ भारत है, जहां जिजीविषा है,संघर्ष है। शिक्षा के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व का अभाव बहुत बड़ी विडम्बना है। भले हैं आज हमारा भारतवर्ष वैश्वीकरण का भारत है,भले हीं आज हम वैश्विक बाजार की गिरफ्त में उदारवादी~पूंजीवादी तरीके से विकास की दौर में शामिल हो रहे हैं लेकिन इसकी गिरफ्त में चिकित्साशिक्षा को लेना समाज के लिए घातक होगा। इससे समाज मे हो रही विभाजन की खाई घातक होगी। ग्रामीणभारत के सुदूरवर्ती अंचलों के विद्यार्थियों और शहरों के विद्यार्थियों के शिक्षा के हर चरण में गहरा फर्क है।
इसके बावजूद खुली प्रतियोगिता में दोनों को समान रूप से उतरना पड़ता है। शहरों में हर कोई प्राइवेट अंग्रेजी माध्यम की ओर रुख कर रहा है और सरकार भी शिक्षा के निजीकरण पर जोर दे रही है।

लेकिन उन सुदूर ग्रामीणभारत के अँचलों में कौन है जो शिक्षा का निवेश करने जाएगा ? कौन गरीब ग्रामीण जनता है जो अपने व अपने बच्चों के लिए इतनी महंगी शिक्षा को खरीद सकेगा, बावजूद इसके ग्रामीण विद्यार्थी प्रतियोगिता परीक्षाओं में उन अभ्यर्थियों के साथ एकसाथ सम्मलित होते हैं व असफल हो जाते हैं, हों भी क्यों न...!! इन्हें न अच्छी प्राथमिक/माध्यमिक/उच्चतर शिक्षा मिलती हैं, न अच्छी किताबें, न अच्छे शिक्षक और न हीं उचित माहौल, कौन इन ग्रामीण भारत के अंचलों में शिक्षा के क्षेत्र में निवेश कर यहां के विद्यार्थियों को समुचित सस्ती शिक्षा व प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए सुलभ कोचिंग मुहैय्या कराएगा।ग्रामीण अंचलों के अधिकतर अभ्यार्थी तो अपने परिवार के भरण- पोषण के लिए स्वध्याय के साथ जीविकोपार्जन भी करते हैं जिस कारण इन्हें प्रतियोगिता परीक्षा के लिए खुद को तैयार करने में लंबा वक्त लग जाता है, समय लगना तो लाजमी है क्योंकि वक्त किसी का इंतजार नहीं करता वो अपनी निर्धारित गति से अनवरत चलता हीं रहता है। ग्रामीणभारत की ऐसी विषम परिस्थितियों की  स्थिति  में  प्रवेश परीक्षाओं में ऊपरी आयुसीमा का निर्धारण  क्या  ग्रामीण विद्यार्थियों  की  प्रतिभा  का  गला नहीं घोंटेगा ?  ये  तो  ऐसा  हीं  जैसे "हाथी, कौआ, मछली, कुत्ता आदि" जानवरों के बीच पेड़  पर  चढ़ने की प्रतियोगिता आयोजित हो  रही  हो...!!

चिकित्सा सेवा शिक्षा में प्रवेश हेतु नेशनल टेस्टिंग एजेंसी द्वारा संचालित एकल प्रवेश परीक्षा neet-ug का संचालन का निर्णय तत्कालीन समय में व्याप्त भ्रष्टाचार प्राइवेट कॉलेजों की मनमानी व अन्य विसंगतियों को ध्यान में रखकर किया गया था।  बड़ी आशा जागृत हुई थी परंतु ऐसा लग रहा है की परीक्षा प्रणाली में नित नए नवोन्मेष से नई परेशानियों का सृजन हुआ और अन्य तत्कालीन समय के कुछ विसंगतियां में बेतहाशा वृद्धि भी हुई। जिसे हम बिंदुवार व्याख्या कर रहे हैं।

(क) एकल प्रवेश परीक्षा NEETug के लिए एकीकृत पाठ्यक्रम का अभाव व प्रश्न पत्रों में एक खास कार्यक्रम को तरहीज देना ;


जबकि NTA द्वारा संचालित नीट यूजी के निर्देश सूची के अनुसार 99 तरह के स्कूल बोर्ड को 12वीं उत्तीर्णता के लिए वैद्य मानती है जिसमे केंद्रीय, राज्य, ओपन व कुछ माइनॉरिटी बोर्ड आते हैं। मतलब 99 बोर्ड के अलग अलग अलग पाठ्यक्रम। विगत वर्षों से देखा गया है कि परीक्षा के प्रश्नपत्रों में किसी खास बोर्ड को तारीख दी जाती है। प्रश्नपत्र सीबीएसई द्वारा संचालित पाठ्यक्रम पर आधारित होते हैं। जिससे सीबीएसई बोर्ड से 12वीं पास करने वाले अभ्यर्थियों की संख्या सफल होने वाले अभ्यर्थियों में सबसे अधिक होती है। कई बोर्ड तो ऐसे होते हैं कि एक भी अभ्यर्थी सफल नहीं हो पाते। यही स्थिति अभियंत्रण शिक्षा के लिए संचालित एकल परीक्षा के प्रश्नपत्र की भी है। ऐसा देखा गया है कि आईआईटी पहुंचने में सीबीएसई के सबसे आगे थे। 2018 में अकेले सीबीएसई पाठ्यक्रम से 55% छात्रों ने आईआईटी में सफलता पाई। 2018 के प्रवेश के आंकड़े में सीबीएसई 55% आईसीएसई से 2.73%, तेलंगाना 10.85%, आंध्र प्रदेश 8.34% महाराष्ट्रा 7.13%, राजस्थान 6.23%, मध्य प्रदेश 1.61%,  बिहार 1.74%,  गुजरात 1.01%, उत्तर प्रदेश 0.96%, जबकि अन्य 13 बोर्डों से किसी भी अभ्यर्थियों ने सफलता नहीं पाई। आईआईटी प्रवेश में अधिकांश छात्रों के सीबीएसई पाठ्यक्रम से आने का सबसे बड़ा कारण आईआईटी प्रवेश परीक्षा का मॉडल सीबीएसई के पेपर होना है। अन्य बोर्ड और संस्थान के पाठ्यक्रम अलग-अलग तरह के होने के कारण अभ्यर्थियों को प्रवेश परीक्षा में सफल होने में कठिनाई होती है। यही स्थिति NEETug की भी है। अन्य बोर्ड के अभ्यर्थी असफल होने या होजाने के भय से एक प्रकार के दबाव में जीते हैं कुछ तो अवसाद में आकर आत्महत्या भी कर लेते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि

(a) ग्रामीण भारत की के सुदूर अंचलों में cbse बोर्ड की पहुँच अभी भी बहुत कम है, बच्चे राज्य संचालित बोर्ड या ओपन स्कूलिंग से 12वी उत्तीर्ण करते हैं,

(b) ग्रामीण भारत की शिक्षा व्यवस्था अभी भी बहुत हीं पिछड़ी है। न अच्छे शैक्षणिक संस्थान, न गुणवत्तापूर्ण शिक्षक, न शैक्षणिक माहौल।

(c) अभ्यार्थी भी सामाजिक और आर्थिक रूप से काफी पिछड़े होते हैं। विषमता को जलते हुए एकलव्य की अध्ययन करते हैं।

इन विषमताओं को झेलते हुए जब प्रतियोगिता परीक्षा में सुविधासम्पन्न अभ्यर्थियों के साथ एकसमान प्रतिस्पर्धा में भाग लेते हैं। उस पर जब वे परीक्षा प्रणाली के प्रश्न पत्रों की उपेक्षा का शिकार होते हैं तो इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते, उसमें एक प्रकार का नकारात्मक भाव का समावेश हो जाता है। ऐसा नहीं कि अभ्यर्थियों में प्रतिभा की कोई कमी होती है। वह शैक्षणिक सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े होने के कारण वे सफल हो जाते हैं। इस तरह की नीति से कोचिंग संस्थानों के व्यवसाय में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है और होती हीं जा रही है। ग्रामीण भारत के  विद्यार्थियों जो केवल दिशाविहीन/मार्गदर्शनविहीन स्वाध्याय करते हैं दोनों को प्रतियोगिता परीक्षा में समान रूप से बैठना पड़ता है परिणाम स्वरूप कोचिंग संस्थान के बच्चे सफल हो जाते हैं और ग्रामीण भारत के विष्मतपोषित बच्चे साल दर साल असफल होते रहते हैं।
अतः एकल प्रवेश परीक्षा के  प्रश्नपत्र की संरचना ऐसी हो कि सभी बोर्ड के बच्चे समान रूप से अपनी प्रतिभा को प्रस्फुटित कर सकें। प्रश्नपत्र में किसी खास बोर्ड को प्रमुखता न दी जाए।


(ख)  संचालन से पहले चिकित्सा सेवा शिक्षा के लिए संचालित प्रवेश परीक्षा ( केंद्रीय अथवा राज्य द्वारा संचालित ) में कटऑफ मार्क्स 50% होते थे। मगर neet-ug संचालन होने के साथ ही परीक्षा में क्वालीफाइंग के लिए कटऑफ मार्क्स 50 परसेंटाइल (यानी लगभग 17-20%) निर्धारित कर दिया गया। पुरानी खामियों को दूर करने के लिए नए सिरे से जाम किए जाते हैं लेकिन जब नए इंतजाम ही नहीं खामियां खरीद करने लग जाए तो सवाल का उठना स्वभाविक ही है। देश के चिकित्सा सेवा शिक्षा में प्रवेश के लिए देश की एकल प्रवेश परीक्षा neet-ug इसका नया उदाहरण है।  इसका परिणाम हुआ कि अभ्यार्थि नीट यूजी परीक्षा में शून्य या नेगेटिव अंक हासिल कर चिकित्सा सेवा शिक्षा में प्रवेश के लिए क्वालीफाई कर गए। (आर्थिक समृद्धि के बल पर) ऐसे बहुत से अभ्यार्थियों को mci  ने चिकित्सा शिक्षा मुहैय्या कराने वाली प्राइवेट/डीम्ड संस्थानों में दाखिला लेने के लिए  योग्य करार दिया। केवल 2017 में  कुल 400 अभ्यर्थी जिन्होंने NEETug की परीक्षा के विषयों में किसी एक विषय में 10 या 5 से कम अंक हासिल किया, को mci ने  दाखिल के योग्य माना। NEETug परीक्षा में शामिल विषयों में किसी एक विषय में शून्य अंक हासिल करने वाले परीक्षार्थियों का भी चिकित्सा सेवा शिक्षा  में प्रवेश के लिए योग्य करार दिया जाना परसेंटाइल पद्धति खेल का ही नतीजा है।







अतः देश मे चिकित्सा सेवा शिक्षा में प्रवेश के लिए NTA द्वारा संचालित एकल प्रवेश परीक्षा NEETug से परसेंटाइल पद्धति को अविलंब हटाकर पूर्ववत परसेंटेज पद्धति को लागू किया जाए। परसेंटेज पद्धति से क्वालीफाई अभ्यार्थियों की गुणवत्ता कायम रहेगी।

(ग) देश की शिक्षा न हीं केंद्रीयकृत या केंद्र द्वारा नियंत्रित है और न हीं शिक्षा व्यवस्था एकसमान है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए केंद्र द्वारा संचालित नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय इत्यादि जैसे संस्था की संख्या अभी भी बहुत हीं कम है। एक समान शैक्षणिक स्थिति, शैक्षणिक संसाधन व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की भारी कमी है। ऐसी स्थिति में राज्य सरकारें अपने राज्य की भौगौलिक, सामाजिक व शैक्षणिक स्थिति को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम निर्धारित कर अपनी जनता को शिक्षा मुहैय्या कराती है। ग्रामीण भारत के सुदूर अंचलों में असंख्य गाँव तो ऐसे हैं कि वहाँ अभी भी कोई स्कूल नहीं है, वहॉं के बच्चे ओपन स्कूलिंग के जरिये शिक्षा पाते हैं। ऐसी विस्मयकारी शैक्षणिक परिस्थितियों में सर्वप्रथम एक समान शिक्षा प्रणाली की दरकार है, मतलब जो शिक्षा,शैक्षणिक माहौल, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा केंद्रीय विद्यालय के बच्चों को मिलती है वही शिक्षा ग्रामीण भारत के सुदूर अंचलों में बसे बच्चे को भी मिलें। एक समान शिक्षा, एक समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षक, एक समान गुणवत्तापूर्ण शैक्षणिक संस्थान पूरे देश के सभी बच्चों को बिना किसी भेदभाव के मिलें। तभी प्रतियोगिता परीक्षा में समान प्रतिस्पर्धा हो सकेगी। जब देश मे एक समान शिक्षा व्यवस्ता हीं नहीं है तो किसी भी पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए एकल प्रवेश परीक्षा का कोई मतलब नहीं रह जाता। अतः पहले की तरह प्रवेश के लिए दो परीक्षायें आयोजित हो, पाठ्यक्रम में उपलभ्द कुल सीटों के 15% सीट के लिए केंद्रीयकृत परीक्षा का अलग संचालन हो, और राज्य कोटे के  85% सीटों के लिए परीक्षा का अधिकार राज्य के परीक्षा सनचसलन करने वाली कमेटी को हस्तांतरित कर दिए जाएं। जिससे राज्य अपने राज्य के  शैक्षणिक पाठ्यक्रम व शैक्षणिक स्थिति को ध्यान में रखकर परीक्षा का संचालन करें।




(3) चिकित्सा  सेवा  शिक्षा  के  लिए  प्राइवेट  मेडिकल  कॉलेज  द्वारा  नियंत्रणविहीन  शुल्क  निर्धारण ;

चिकित्सा सेवा शिक्षा के लिए देश के प्राइवेट मेडिकल कॉलेज द्वारा नामांकन में बिना में सरकारी नियंत्रण के मनमाने ढंग से स्वयं हीं इसका निर्धारण कर वसूल लेती है। छात्रों से वह अभ्यर्थियों से भिन्न-भिन्न फीस के नाम पर हजारों करोड़ का एक चिकित्सा शिक्षा में व्यापर कर रही है। जहां एक तरफ वो मनमानी फीस वसूल हीं रही है दूसरी तरफ उसकी शिक्षा चिकित्सा शिक्षा गुणवत्ता में भी भारी गिरावट देखी गई है। राष्ट्र के कुछ उत्कृष्ट प्राइवेट मेडिकल कॉलेज की सूची तथा उनके सालाना फीस प्रति वर्ष निम्न है,

डीवाई पाटील मेडिकल कॉलेज पुणे 22 लाख एसआरएम मेडिकल कॉलेज कांचीपुरम 22.5 लाख श्री रामचंद्र मेडिकल कॉलेज चेन्नई 22 लाख
सविता मेडिकल कॉलेज चेन्नई 22 लाख
एमजीएम मेडिकल कॉलेज 22 लाख

देश के अन्य मेडिकल कॉलेजों की भी लगभग यही स्थिति है। फीस वसूली में यह जितने उत्कृष्ट हैं चिकित्सा शिक्षा के नाम पर यह छात्रों को प्रशिक्षित करने में उतने ही पीछे हैं। इन कॉलेजों से निकले छात्रों की गुणवत्ता ऐसी की हॉस्पिटल इन्हें ₹30000 महीने देने में भी आनाकानी करते हैं। चिकित्सा शिक्षा के नाम पर इस अनियंत्रित बेतहाशा फीस वसूली के कारण देश के मध्यम वर्ग से संबंध रखने वाले अभ्यर्थी इन कॉलेजों में पढ़ने के सपने भी नहीं देख सकते। हम एक बहुत ही ताजा उदाहरण दे रहे हैं कि किस प्रकार एक मध्यम वर्ग वर्ग परिवार की बच्ची प्राइवेट मेडिकल कॉलेज के प्रबंधन के द्वारा नामांकन के बाद मनमानी फीस वसूली की वजह से आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाती है। पिछले वर्ष की बात है इंदौर के एक निजी मेडिकल कॉलेज में एक छात्रा ने कॉलेज प्रबंधन के मनमानी से तंग आकर तंग आकर तंग आकर 11 जून 2018 को आत्महत्या कर ली। हालाँकि इस मौत को खोले प्रबंधन में प्रेम प्रसंग प्रेम प्रसंग से जोड़ दिया था।
मगर पुलिसिया छानबीन के बाद सुसाइड नोट मिलने पर सबकुछ साफ हो गया। सुसाइड नोट में पीड़ित छात्रा (स्मृति लहरपुरे) ने लिखा था  "मेरी मौत के लिए सीधे तौर पर कॉलेज चेयरमैन और प्रबंधक जिम्मेवार है।" स्मृति को पहले दाखिले के समय बताया गया था कि 1 साल साल की फीस 8.5 लाख और हॉस्टल फीस 2 लाख है। लेकिन फिर तमाम छात्रों से कई लाख रुपये अधिक लिए गए। जिस कारण इस मामले को लेकर वो कॉलेज प्रबन्ध के विरुद्ध अदालत गई, अदालत ने भी स्मृति का पक्ष लिया। इसके बावजूद कॉलेज प्रबंधन सबों से बढ़ी हुई फीस लेता है। इसके अतिरिक्त प्रबंधन ने कभी स्मृति को उसका वजीफा नहीं दिया, उल्टे उस पर दंड लगाते गए। इसके बाद चेयरमैन ने प्रबंधक को उन सभी छात्रों से बकाया फीस वसूली का आदेश दिया जिन्होंने अदालत के निर्देशानुसार फीस जमा की। स्मृति में अपने सुसाइड नोट में लिखा था
"किसी भी हाल में बढ़ी हुई फीस जमा करने जमा करने फीस जमा करने जमा करने  के लिए मेरे माता-पिता पहले से ही अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से उधार ले चुके थे। मैंने ऐसी फर्जी संस्थान पहले कभी नहीं देखी। यहां कोई ढाँचा और  व्यवस्था डॉक्टर और मरीजों के परिजनों के लिए नहीं है। उन्होंने रिश्वत देकर एमसीआई से मान्यता ली है। मैं इतनी प्रताड़ना और लूट सहते हुए इतने दबाव में काम और पढ़ाई नहीं कर सकती। इसलिए मैंने इससे मुक्त होने का निर्णय लिया है। प्लीज इस कॉलेज को बंद करा करो, जहां मरीजों की जिंदगी और कॉलेज के स्टूडेंट के कैरियर का विनाश किया जाता है।"

उसने आगे और भी बहुत कुछ लिखा था अपने सोसाइड नॉट में। यहाँ भावुक होने के बजाय स्मृति के बातों का बातों का मतलब समझने की कोशिश करने की जरूरत है। वह कह रही है कि इस तरह के निजी कॉलेज में लूट होती ही है, छात्रों की पढ़ाई भी सही तरीके से नहीं होती। आज हमारे देश में निजी मेडिकल कॉलेजों की हीं संख्या अधिक है सरकारी मेडिकल कॉलेज की तुलनामें। जाहिर है कॉलेज की संख्या अधिक है तो सीटों की उपलब्धता भी प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में हीं अधिक है। देश ये सभी प्राइवेट मेडिकल कॉलेज (अपवाद स्वरूप कुछ संस्थानों को छोड़ दें तो) चिकित्सा सेवा शिक्षा देने के नाम पर बहुत हीं बड़े मुनाफे का व्यवसाय कर रही है। ऐसी आपातकालीन शिक्षा जिसपर जनमानस के जीवन की सुरक्षा निर्भर है। ऐसी शैक्षणिक संस्थान जो अन्य संस्थानों की तरह प्रोफेशनल्स तैयार करने के बजाय "धरती का भगवान" तैयार करती है, वहाँ शिक्षा के नाम पर व्यवसाय बहुत हीं शर्मिंदा और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कोढ़ पैदा करने वाली है। ज्ञात हो कि चिकित्सा सेवा शिक्षा में प्रवेश के लिए देश की एकल प्रवेश परीक्षा NEETug के संचालन से पहले देश के सामान्य प्राइवेट मेडिकल कॉलेज की फीस 4 से 7 लाख (प्रति वर्ष) होती थी मगर NEETug संचालन के बाद प्राइवेट मेडिकल कॉलेज ने अपनी फीस फीस फीस में बेतहाशा वृद्धि कर दी लगभग दोगुनी।

अतः राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अविलम्ब ऐसे नीति का सृजन कर ऐसी व्यवस्था बनाई जायें जो चिकित्सा सेवा संस्थान के लिए सर्वसुलभ फीस का निर्धारण करे। जिससे ऐसी शिक्षा सबके लिए उपलभ्द हो सके व उनकी शैक्षणिक गुणवत्ता में भी सुधार हो सके।



(4) चिकित्सा  सेवा  शिक्षा  में  नामांकन  हेतु  आरक्षण  प्रणाली  में  वास्तविक  क्रीमीलेयर  का  अभाव ;



महोदय, किसी ने क्या खूब कहा है :~

“सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम्।
दैवायतं   कुले   जन्मः  मयायत्तं  तु  पौरुषम्॥“

अर्थात - मैं चाहे सूत हूँ या सूतपुत्र, अथवा कोई और। किसी कुल-विशेष में जन्म लेना यह तो दैव के अधीन है, मेरे पास जो पौरुष है उसे मैने पैदा किया है।

समाज के विभिन्न वर्गों के अलग अलग लोगों का आरक्षण पद्धति के प्रति अलग अलग मत है कोई कहता है होना चाहिए कोई कहता है नहीं होना चाहिए परंतु हमारा मानना है कि समाज में ऐसी परिकल्पना की आवश्यकता है
जिससे समाज के वैसे लोग चाहे वह किसी जाति, धर्म, समुदाय से संबंध रखते हो जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से वंचित रह गए हैं उन सभी वंचितों को साथ लाकर कदम से कदम मिलाकर साम्यवादी सोच के साथ सर्वसमता की भावना से संबंधित व अधिकारित कर राष्ट्र निर्माण में भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।

सन 1882 में महात्मा ज्योति राव फुले ने वंचित के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की वकालत की थी। सर्वप्रथम 1901 में भारत में छत्रपति शाहूजी महाराज ने वंचितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की शुरुआत की जिससे वह समाज की मुख्यधारा में आकर अपना चरमोत्कर्ष कर सामाजिक भागीदारी सुनिश्चित कर सकें। आजादी के बाद वंचित समुदाय के लोगों के लिए 10 वर्षों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई जिसके बाद लगातार इसकी सीमा सीमा को बढ़ाया जाता रहा। 1979 में मोरारजी देसाई वाले जनता पार्टी की सरकार ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में “मंडल कमीशन” गठित किया तदुपरांत आयोग ने आर्थिक स्थिति को दरकिनार कर जातिगत मात्र 1257 समुदाय को पिछड़ा घोषित करते हुए 22% आरक्षण निर्धारित कि परन्तु 1980 में पिछड़ी जाति की हिस्सेदारी शामिल करते हुए 22% से बढ़ाकर 49.5% आरक्षण निर्धारित करने का सुझाव दिया जिससे पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण का प्रावधान किया गया, जिसे 1990 में बीपी सिंह की सरकार ने इस सुझाव को लागू किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस व्यवस्था को वैध ठहराते हुए इसकी सीमा 50% से अधिक ना हो का सुझाव दिया।

आरक्षण हमारे यशस्वी मनीषियों की देश के गरीब आर्तजनों को समाज की मुख्यधारा में लाने की सर्वोत्कृष्ट कल्पना थी परंतु देश की आजादी के शुरुआती वर्षों को छोड़ दें तो जैसे-जैसे समय गुजरता गया लोकतंत्र के दूरदर्शी स्वार्थी राजनेताओं के सरकार में कल्पांत तक बने रहने की लालसा ने इसे अपना मजबूत हथियार बनाना शुरू किया। आरक्षण के आधार पर भारतीय समाज को बांटने की शुरुआत करने लगे व अंग्रेजों की तरह “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाने लगे। जबकि आरक्षण के उद्देश्य में कहीं भी जाति विशेष की बात नहीं की गई थी सिर्फ वंचितों की बात थी चाहे वो किसी भी जाति धर्म समुदाय से संबंध क्यों ना रखता हो। क्योंकि वंचितों की कोई जाति नहीं होती। गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा जाति देख कर नहीं आती। जिन शब्दों के उच्चारण मात्र से जनमानस का हृदय स्पंदित हो उठता था और एक जुनून सा जाग उठता था, ह्रदय कल्पित होता था आज इन शब्दों का बखूबी इस्तेमाल कर जनमानस को ठगने का काम हो रहा है जबकि “दलित शब्द” का सरोकार उन लोगों से है जो अल्पसंख्यक हैं शोषित व गरीब हैं चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, समुदाय से क्यों ना संबंध रखते हों मगर इसे जाति सूचक का ब्रांड एंबेस्डर बना दिया गया। सरकार में बने रहने के लिए इसका भरपूर उपयोग किया जाता रहा।भारत में 2700 से अधिक जातियां हैं परंतु मंडल कमीशन ने मात्र 1270 जातियों को हीं शुरुआती दौर में आरक्षण के दायरे में रखा, परिणाम स्वरूप यह हुआ कि शुरुआती दिनों में ही जिसने आरक्षण का लाभ ले लिया आज भी ज्यादातर उन्हीं के वंसज लाभ ले रहे हैं यानी “आरक्षण में परिवारवाद” अर्थात उस जाति के गरीब भी आरक्षण का लाभ लेने से वंचित होते चले गए। जाति के नाम पर कुछ मुट्ठी भर लोग आरक्षण का लाभ लेते आ रहे हैं तथा उन्हीं की अगली पीढ़ी लाभ लेने में आगे है। गरीब व उनके बच्चों का समय तो जीविकोपार्जन में ही बीत जाता है नहीं तो आज आजादी के 71 साल बाद भी आरक्षण से लाभान्वित पिछड़ी जातियों का समुचित विकास क्यों नहीं हो पाया ?

हद तो तब हो गई जब आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की सीमा को समय-समय पर बढ़ाया जाने लगा। सर्वप्रथम तमिलनाड सरकार द्वारा गठित “ सतनाथन आयोग ” ने 1970 में क्रीमी लेयर की सिफारिश की थी। 1993 में इंदिरा सहनी बनाम UOI के केस में सुप्रीम कोर्ट एक लाख रुपया सालाना आय से अधिक वाले को क्रीमी लेयर में रखा। तदुपरांत समय समय पर इसकी सीमा बढ़ाए जाने लगे जो 2004 में 2.5 लाख, 2008 में 4.5 लाख, 2013 में 6 लाख और
अक्टूबर 2015 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इसे 15 लाख प्रतिवर्ष आय वाले परिवार को भी आरक्षण का लाभ देने की संस्तुति की। वर्तमान सरकार ने इसे 2017 में 8 लाख करने की घोषणा की, जो केवल ओबीसी आरक्षण पर ही लागू होती है अनुसूचित जाति व जनजाति आरक्षण पर नहीं।

जबकि स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की सरकारों को आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार बनाना था जिस मापदंड के अंतर्गत राष्ट्र के सभी जाति, धर्म, समुदाय के वंचित तबके के लोगों को सामाजिक न्याय मिलता और राष्ट्रीय कल्याण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते। परंतु हुआ इसके ठीक विपरीत, आर्थिक आरक्षण को दरकिनार कर जातिगत आधार को मापदंड बनाया गया। आजादी के 71 साल बाद भी “आरक्षण में परिवारवाद” बनाए रखने के लिए समय-समय पर क्रीमी लेयर की सीमा में बढ़ोत्तरी कर उसी जाति के आर्तजनों का गला घोटा।

अब आज स्थिति अत्यंत हीं दुष्कर हो गई है, कोई भी लोकतांत्रिक सरकार आरक्षण के संदर्भ में बदलाव करने की नहीं सोच सकता, सबको सरकार में बने रहने की परी है। जिसप्रकार क्षेत्रीय नेताओं का अभ्युदय सिर्फ जाती, धर्म, समुदाय के नाम पर हो रहा है ये परिस्थिति न केवल राष्ट्र की एकता और अखंडता बल्कि सम्प्रभुता के लिए भी खतरा बनते जा रहा है। ऐसे नेतृत्वकर्ता अपने को सम्बंधित समुदाय के मूर्ख भोली भाली अबोध जनता के सामने अपने को उसका रहनुमा बताकर उन्हें बड़गला रहे हैं व भारतवर्ष की अखंडता को खंडित करने का काम ले रहे हैं। वर्तमान में अधिकतर नेता सिर्फ जातिवाद की राजनीति कर रहे हैं,किसी को राष्ट्रीय कल्याण से कोई सरोकार नहीं। कोई कहता आरक्षण खत्म किया जाए, कोई कहता है आरक्षण का दायरा और बढ़ाया जाए, किसी को आधारभूत समस्या व सही लोगों को इसका लाभ मिले इससे कोई सरोकार नहीं।  जबकि जरूरत है समय के साथ आरक्षण के आधार प्रणाली में वैज्ञानिक सोच के साथ संशोधन कर इसे एक सहारा के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जिससे अब सभी जाति, धर्म, समुदाय के गरीब लोगों का समान विकास हो व एक साम्यवादी समाज की स्थापना हो सके और परस्पर भाईचारा सामाजिक सौहार्द बना रहे जिससे राष्ट्रीय कल्याण की भावना सुदृढ़ होगी जिससे राष्ट्र दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करेगा तथा विश्व में एक नया कीर्तिमान स्थापित करेगा। आरक्षण पद्धति का आधार अब आर्थिक हो जिससे सभी सभी जाति धर्म समुदाय के केवल गरीब आर्तजनों को इसका लाभ ले सकें। इसके लिए एक लाख तक वार्षिक आय वाले को 27% , दो लाख तक आय वाले को 12%, तीन लाख तक आय वाले को 7% व चार लाख तक आय वाले को 4% तक का लाभ मिले तथा इससे अधिक वार्षिक आय वाले को किसी प्रकार के आरक्षण का लाभ न मिले जिससे “आरक्षण” हमेशा एक सहारा हो न कि भोग का जरिया बन जाय। यदि ऐसा न हो पाया तो सामाजिक सौहार्दपूर्ण भाईचारे के साथ आजादी की शताब्दी वर्ष मनाना भी हमें लगता है कि  मुश्किल हो जाएगा। अतः इस संदर्भ में अब समाज के शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नौकरशाही व्यवस्था, विधायिका व न्यायपालिका को मिलकर इसपर मंथन कर एक साम्यवादी समाज की स्थापना पर सर्वसमता से चिंतन कर यथाशीघ्र कोई ठोस निदान निकालना चाहिए




(5) चिकित्सा  सेवा शिक्षा में शोधकार्य व नैतिकता  का  अभाव और ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था ;

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में चिकित्सा सेवा शिक्षा के लिए पारा 16.8 में कहीं भी शोध कार्य का उल्लेख नहीं है जो कि एक बेहद अहम कड़ी है।

महोदय, हमारे देश में हर साल करीब 50 हजार डॉक्टर मेडिकल कॉलेज से निकलते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय डॉक्टरों की अच्छी प्रतिष्ठा है और दुनिया के सबसे बड़े मेडिकल शिक्षा प्रणाली में भारत का नाम शामिल है। लेकिन इन उपलब्धियों के बावजूद हमारे मेडिकल कॉलेज गंभीर कमियों से ग्रस्त हैं।डॉक्टरों की एक संस्था "एसोसिएशन ऑफ डिप्लोमेट नेशनल बोर्ड" के मुताबिक पिछले 10 वर्षों में 576 मेडिकल संस्थानों में से 332 ने एक भी शोध पत्र प्रकाशित नहीं किया है। जबकि "अनुसंधान" चिकित्सा, अध्ययन और प्रशिक्षण के आधार होते हैं। यदि हमारे आधे से अधिक कॉलेज में ऐसा नहीं हो रहा है तो यह डॉक्टर बन रहे छात्रों की क्षमता तथा शिक्षण-प्रबंधन पर बड़ा सवालिया निशान है। सरकारी संस्थानों की लचर व्यवस्था पर अक्सर चर्चा होती है पर यह भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि लगभग 60% मेडिकल कॉलेज निजी क्षेत्र में हैं। यह संस्थान अपने छात्रों से भारी शुल्क वसूलते हैं शोध नहीं हो पाना अत्यंत चिंताजनक है। हर स्नातकोत्तर छात्र को अंतिम परीक्षा के लिए एक थीसिस लिखनी होती है, तो क्या यह मान लिया जाए कि ज्यादातर थीसिस प्रकाशित होने लायक नहीं होते हैं और उन्हें सिर्फ पास परीक्षा पास करने के लिए लिखा जाता है। कॉलेज प्रबंधन भी उन्हें उनके लिए उत्साहित नहीं करता है। कुछ मेडिकल कॉलेज सरकारी मंजूरी की शर्त पूरी करने के लिए डॉक्टरों को कागजों पर अपने यहां शिक्षक के रूप में दिखा देते हैं। कई छात्रों के लिए मेडिकल सिर्फ एक कैरियर है और उसका लक्ष्य डिग्री डिग्री लेकर पैसा कमाना होता है ना की रिसर्च करना। गंभीर अध्ययनों की एक कमी का नुकसान भारत समेत अन्य देशों को भी हो सकता है। हमारे देश मे चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता के कारण पिछले दशकों से ऐसा देखा जा रहा है कि ( विश्व बैंक के अनुसार व व्यावसायिक रिकॉर्ड के अनुसार) एक तिहाई भारतीय डॉक्टर पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रशिक्षण या काम करने के लिए विदेश चले जाते हैं, तकरीबन 15 प्रतिशत डॉक्टर तो अकेले अमेरिका का रुख करते हैं। भारत के अच्छे संस्थाओं से चिकित्सा शिक्षा प्राप्त किये प्रशिक्षित डॉक्टर्स की विदेशों में बहुत हीं ज्यादा माँग है। वे इन्हें अच्छी सेलरी , सुविधा और सुरक्षा देते हैं। जबकि खुद हमारे देश मे स्वास्थ्य सुविधाओं की काफी कमी है। भारतीय चिकित्सा परिषद के आंकड़ों के अनुसार 2017 में 1596 लोगों पर एक एलोपैथिक डॉक्टर का अनुपात था। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की बदहाली ने निजी अस्पतालों और डॉक्टरों के अकूत कमाई का रास्ता खोल दिया है। इन समस्याओं के समाधान के बिना कारगर स्वास्थ्य सेवा तंत्र स्थापित करने का सपना पूरा नहीं हो सकता। हाल के वर्षों से देखा गया है कि चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने के बाद डॉक्टर्स (अपवाद स्वरूप कुछ डॉक्टर्स को छोड़) का लक्ष्य केवल पैसा कमाना हो गया है।



अधिकतर डॉक्टर अपने कर्तव्यों को हमेशा रुपये से तौलते हैं। उनके लिए किसी के जान से बढ़कर कीमत उनका वर्किंग आवर्स और मासिक आय है। जबकि स्वास्थ्य सेवा आपातकाल सेवाओं में से एक है, फिर भी अब वो अपनी कलाई घड़ी (जिसका उपयोग हम समय के साथ मरीजों के प्लस देखने मे करते हैं) विजिटिंग आवर्स को देखने मे ज्यादा करते हैं मतलब यदि उनका विजिटिंग आवर 11:00am से 1:00pm है तो वो अपनी घड़ी को 11:00 बजे और 1:00 बजे बड़ी एकाग्रता से देखते हैं। अब यदि उनको घड़ी में 1:00 बजने पर नजर पर गई तो वे अपने स्टेथोस्कोप को हाथ मे हिलाते हुए अपनी गाड़ी में बैठ कर चल पड़ते हैं, क्यूँ न कोई मरीज अपने दर्द से तड़प रहा हो। बीते दिनों में ऐसा कई बार/ बार-बार देखने को मिलता है कि यदि चिकित्सकों के साथ कोई बदसलूकी हो तो सभी स्वास्थ्य संगठन मिलकर (IMA व अन्य संगठन) सरकार का व व्यवस्था का विरोध करते हैं। अब कई बार तो ये विरोध राजनीति से भी प्रेरित होने लगीं। इस तरह के विरोध में सबसे ज्यादा कष्ट मरीजों को हीं भुगतना पड़ता है, बहुत बार तो मरीज इन आंदोलनों की बलि भी चढ़ जाते हैं।
इस विस्मयकारी सामाजिक संरचना में जिनके परिजन बलि चढ़ते हैं, उनके आश्रित कैसी दिनचर्या जीने पर मजबूर होते हैं इसे जानने के लिए किसी पीड़ित से मिलें तो आभास हो जाएगा, ऐसी की रूह काँप जाएं मानवता की। मगर इसके ठीक दूसरी पहलू को देखें तो बहुत दुख होता है की जब किसी डॉक्टर्स की लापरवाही की  वजह से किसी मरीज की मौत हो जाये तो IMA या अन्य स्वास्थ्य संगठन शायद हीं उसके विरुद्ध उचित कार्रवाई करते हैं। कार्रवाई के नाम पर लीपापोती करने में लग जाते हैं। यदि हम अपने क्षेत्र में इस तरह के मामले की गणना करें तो गिनती के लिए हमारे हाथ की उंगलियाँ कम पड़ जाएं। ऐसे अविश्वसनीय नैतिकता का पतन का मुख्य कारण चिकित्सा शिक्षा में नैतिक शिक्षा का पूर्ण अभाव, चिकित्सा शिक्षा का व्यवसायिकरण है।

हाल हीं में नीति आयोग नीति आयोग ने दूसरी बार राज्य स्वास्थ्य सूचकांक जारी किया है जिसमें केरल पहले स्थान पर है तो उत्तर प्रदेश अंतिम स्थान पर है। मैं किसी एक राज्य पर बात नहीं करूंगा हमारी चिंता देश स्तर पर होनी चाहिए। राज्यों और केंद्र दोनों के स्तर पर बेहतर स्वास्थ्य नीति मायने रखती है। जनस्वास्थ्य की हालत इतनी खराब क्यों है इसका कारण है देश के अच्छे डॉक्टरों का विदेश चले जाना यह बहुत बड़ी समस्या है। इनको रोकने के लिए सरकार को कुछ करना चाहिए। हमारे देश में ऐसी नीति बने तभी संभव है कि डॉक्टर का यह ब्रेन ड्रेन रुके। इस ब्रेन ड्रेन के कारण हीं सार्वजनिक स्वास्थ्य की हालत खराब है।
देश में स्वास्थ्य को उत्तम और हर व्यक्ति तक सर्वसुलभ बनाने के लिए कुछ बातों को समझना जरूरी है। पहली बात है स्वास्थ्य पर खर्च होने वाले जीडीपी का प्रतिशत जो फिलहाल 1से 3 प्रतिशत के आसपास है जो कि बहुत ही कम है इसे कम से कम 3 से 5% के बीच बढ़ाने की सख्त जरूरत है। जब स्वास्थ्य का बजट बढ़ाया जाएगा तभी संभव है कि सरकारी अस्पतालों में खाली पदों को भरा जा सकेगा और तमाम मेडिकल उपकरणों दवाइयों की उपलब्धता को सुनिश्चित किया जा सकेगा।
स्वास्थ्य का बजट बढ़ाकर इन चीजों को सुनिश्चित कर दिया जाए तो सार्वजनिक स्वास्थ्य की दशा और दिशा दोनों बदल जाएगी। अस्पतालों के स्ट्रक्चर को विकसित करना और उसे सुरक्षा का माहौल मुहैया कराना ऐसी चीजें हैं जिन को लेकर सरकार को नीति बनानी चाहिए। भारत में इन तीनों चीजों की अभाव से स्वास्थ्य के क्षेत्र में को बहुत कमजोर बना दिया है। यही वजह है कि अकस्मात जब कोई संस्था संगठन स्वास्थ्य संकट आता है तो हम उससे लड़ने में नाकाम हो जाते हैं। यही नहीं देश में जब भी कहीं कोई शंकट आता है तो मीडिया सिर्फ मरीजों की समस्या को ही दिखाता है,  मैं मानता हूं यह बहुत जरूरी है लेकिन यह भी तो जरूरी है कि मीडिया पर डॉक्टरों की परेशानियों को दिखाएं। तकरीबन 1000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए लेकिन सरकार इस पैमाने पर अमल नहीं करती और सरकारी अस्पतालों में भैरव पद खाली पड़े रहते हैं। ऐसा नहीं कि भारत में डॉक्टरों की कमी है मसला उनको अच्छी सैलरी और सुरक्षा का माहौल देने का है। अब सवाल है कि डॉक्टर यहां से पढ़ाई पूरी कर विदेश क्यों चले जाते हैं इसका सीधा सा मतलब जवाब है अच्छी सैलरी और सुरक्षित माहौल डॉक्टरों को लेकर भारत में इन दो चीजों का अभाव दिखता है।
इंसान दो बुनियादी चीजों के लिए पैसा बचाता है, एक शिक्षा दूसरा स्वास्थ्य। इस लिहाजा से शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनका बजट बढ़ाया जाना चाहिए। बजट बढ़ाकर हेल्दी और ब्रेनी इंडिया बनाने की जरूरत है क्योंकि हेल्थी इंडिया ही ब्रेनी इंडिया हो पाएगी। यानी भारत स्वास्थ्य रहेगा तो यहां के लोग भी स्वास्थ्य मन मस्तिष्क वाले होंगे । स्वास्थ्य और शिक्षित भारत की कार्यक्षमता बहुत शानदार होगी। अगर स्वास्थ्य पर होने वाले बेवजह के खर्चे जनता बचा लेती है तो वह उसकी कमाई हो जाएगी। लोग बीमार नहीं परेंगे या बीमार पर बीमारी पर ज्यादा नहीं खर्च होंगे तो यह बचत कर पाएंगे। जिससे उनके अंदर खुशहाली आएगी और वे देश के लिए बेहतर काम कर सकेंगे। बेहतर काम करेंगे तो बाजारों भी बढ़ेगा और इससे जीडीपी को और भी फायदा होगा।
पीआरएस के अनुसार भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों द्वारा संयुक्त रूप से जीडीपी का लगभग 3 प्रतिशत खर्च किया जाता है।  हालांकि दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों की तुलना में भारत का सार्वजनिक खर्च बहुत ही कम है। रिपोर्ट के मुताबिक ब्राजील 46% चीन 56% इंडोनेशिया 40% अमेरिका 48% और ब्रिटेन 85% खर्च करता है। हेल्थ केयर सेवाओं में सरकारी भागीदारी बरी होने से हेल्थकेयर होने से हेल्थकेयर इकोसिस्टम विशेषकर हॉस्पिटल सर्विसेज और निवेश को प्रोत्साहन मिलता है। भारतीय स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के अनुसार मात्र 7% उपकेंद्र 12% प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 13% सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पूर्ण क्षमता के साथ संचालित हैं। जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति काफी दयनीय है विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित आबादी और डॉक्टर अनुपात भारत में 25 गुना कम है।
ऐसी नीति का निर्माण हो जिससे

(क) कॉलेज प्रबंधन आपने छात्रों को शोध के लिए बाध्य करें। क्योंकि शोध कार्य बिना कॉलेज प्रबंधन के दबाव के सम्भव नहीं। बिना प्रमाणिके शोध के सार्वजनिक रूप से प्रैक्टिस की अनुमति न मिलें, ऐसी व्यवस्था हो।

(ख) चिकित्सा शिक्षा में नैतिक शिक्षा का भी समावेश हो, जिससे उनमें कर्तव्यों के प्रति नैतिकता का आत्मबोध हो और

(ग) चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने के बाद देश के सुदूर अंचलों में कम से कम 5 वर्ष के लिए स्वास्थ्य सेवा देने की बाध्यता हो तभी उन्हें निजी प्रैक्टिस या कहीं अन्य व्यवसाय के लिए  जाने  अनुमति हो

(घ) जहाँ एक तरफ स्वास्थ्य संगठनों (IMA) को केवल नीतिगत विरोध का अधिकार हो, मतलब उन्हें व्यवस्थागत विरोध के साथ मरीजों के सुरक्षा की गारंटी सुनिश्चित करनी होगी और दूसरी तरफ डाक्टर्स की लापरवाही को भी नजरअंदाज न करने का दबाव हो



(6) विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षा में व्याप्त विषमता और विविधता पूर्ण भारत की आर्थिक विषमता ;




प्रतियोगिता परीक्षाओं में ऊपरी आयुसीमा और व्याप्त आर्थिक विषमता

वेद कहता है :

"नहीं दरिद्र सम दुःख जग माही" अर्थात दरिद्रता से बढ़कर कोई दुख नहीं, "दरिद्रता" दुःख हीं नहीं अपितु समस्त दुःखों की जननी है...

अतः हमें सर्वप्रथम हमारे समाज में व्याप्त गरीबी को जड़समूल दूर कर/करने के लिए विष्मतापोषित ग्रामीण युवा अभ्यर्थियों के लिए प्रतियोगिता परीक्षाओं में स्वतन्त्र अवसर प्रदान कर समाजिक न्याय के साथ राष्ट्रकल्याण सुनिश्चित करना होगा।

आज हम सबों के लिए कितने दुख की बात/विडंबना है की आजादी के इकहत्तर साल बीतने के बाद भी देश की बहुत बड़ी आबादी लगभग 60% गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी से जूझ रही है जबकि आजादी के नायकों ने देश के लिए जो स्वर्णिम स्वप्न देखे थे वो समय के साथ धूमिल होते गए। ऐसा नहीं कि हमारे देश मे संशाधनों की कमी थी, इन संसाधनों का कुछ मुठ्ठी भर लोगों ने दोहन किया, अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति की जिससे एक तरफ जहाँ कुछ लोगों ने अकूत धनसंचय किया वहीं दूसरी ओर एक बहुत बड़ी आबादी दो वक्त की रोटी के भी लाले पड़ रहे हैं। आसमान आर्थिक खाई हो जाने से गुजरते वक्त के साथ रोजगार, विनिवेश, शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं पर पूंजीपतियों/धनकुबेरों का अधिकार हो गया व वंशवाद में रूपांतरित हो गए जिससे पूर्ववर्णित सुविधाओं से बहुत बड़ी आबादी वंचित होती चली गई। आर्थिक रूप से सक्षम लोगों के पास हीं निवेश/रोजगार की क्षमता हो गई, बाकी को काफी मसक्कत होने लगी।

हाल हीं में ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने सी.आर.आई. (C.R.I.- Commitment to Reducing Inequality) इंडेक्स की रिपोर्ट जारी की है सूची में शामिल 157 देशों में भारत अंतिम के 15  देशों के बीच खड़ा है जिस में गैरबराबरी कम करने के प्रति सबसे कम प्रतिबद्धता देखी गई है। इस मामले में नाइजीरिया जैसे देशों के करीब आ पहुंचे भारत को 147 वा रैंक दिया गया है, ऑक्सफैम ने भारत के बारे में कहा कि देश की स्थिति बेहद नाजुक है और यहां की लोकतांत्रिक सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा पर बहुत कम खर्च कर रही है है  वहीं निजी सेक्टर को सब्सिडी प्रदान करती है। हालिया दशक में भारत में आर्थिक विषमता उच्चतम स्तर पर है और बहुत तेजी से बढ़ी है इसका बड़ा कारण "सुपर रिच क्लास" का उदय होना रहा है। पिछले साल हीं यह तथ्य सामने आया था कि देश की 1% आबादी के हिस्से में देश की 73% संपत्ति आती है, 67% भारतीय गरीबी रेखा से नीचे बसर करते हैं। भारत की 27.5% आबादी बहुआयामी गरीबी की मार झेल रही है और कुपोषण का शिकार हो रही है वहीं 8.6 प्रतिशत भारतीय इतने गरीब हैं कि उनके लिए दोनों समय भोजन जुटाना सपने जैसा बनते जा रहा है।

आर्थिक विषमता की शुरुआत हीं संपत्ति के असमान वितरण से होती है, वहीं दूसरी तरफ गौर करें तो सबसे अमीर भारतीय मुकेश अंबानी की 1 दिन की कमाई 300 करोड़ को पार कर गई है, कुल 831 भारतीय की संपत्ति 1000 करोड़ से ज्यादा मूल्य की है, 273 लोगों की आमदनी चार करोड़ से ज्यादा है।
भारत जैसे देश में आर्थिक विषमता औरभी बड़ी समस्या मानी जानी चाहिए क्योंकि यहां लोग केवल गरीबी और अमीरी ही नहीं बल्कि लोग धर्म, जाति, समुदाय आदि के आधार पर भी बंटे हुए हैं इसलिए भारत जैसे देश को आर्थिक विषमता और अधिक क्षति पहुंचाती है। एक बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में लोकतंत्र के दीर्घकालीन अस्तित्व के लिए इस विषमता को समाप्त करना बहुत जरूरी है।
हमारी लोकतांत्रिक सरकार की बड़ी जिम्मेदारी है कि वह इस दिशा में काम करें, इस संदर्भ में नीतिगत स्थायी समाधान हेतु नीतिनिर्धारण के केंद्र में गरीब/आर्तजनों की पीड़ा/मजबूरी/आवश्यकता शामिल कर विषमता की खाई को पाटे  व इनके स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य कल्याणकारी योजनाओं पर काम किया जाए और संपत्ति के असमान वितरण को दूर करने का स्थायी प्रयास किया जाए।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (G.H.I.) जो वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर भुखमरी का आकलन करती है, में भारत लगातार बढ़ता जा रहा है। इस मामले में साल 2014 में भारत 99वें, 2015 में 80वें, 2016 में 97वें, 2017 में 100वें, इस साल 2018 के लिए हुए सर्वे में 119 देशों में से 103वें स्थान पर पहुंचा यानी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में भूख की स्थिति बेहद गंभीर है। जबकि हाल ही में हुए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की 2018 बहुआयामी वैश्विक गरीबी सूचकांक के मुताबिक 2005-06 से 2015-16 के बीच एक दशक में भारत में 27 करोड लोग गरीबी रेखा से बाहर निकल गए। मतलब इन लोगों की प्रति व्यक्ति प्रति दिन आय 32 ₹ से अधिक हो गई, ताज्जुब की बात है न..!! "गरीब लहरों पे पहरे बिठाए जाते हैं, समंदर की तलाशी क्यों नहीं होती" हैरत होती है इस तरह के गैरजिम्मेदाराना नीतियाँ बनाने वाले नौकरशाही व्यवस्था पर और तरस आती है उन लोगों पर भी की इस विषमताओं को जूझते हुए उनकी सांसें चलती रहती हैं इस आशा से की कोई रहनुमा जरूर आएगा जो उनको आँखों के आंसुओं को महशुस करेगा व निदान करने को नीतियों में बदलाव लाएगा जिससे इनकी दैनन्दिनी में चर्मोत्कर्ष होगा।

राष्ट्रीय जीवन में आर्थिक विषमता एक भयावह सच है, राजनीति और समाज में भले ही गाहे-ब-गाहे इसे दूर करने के प्रयासों की चर्चा हो जाती है पर वास्तविकता यही है कि इस समस्या को लोकतांत्रिक स्वतन्त्र भारत का एक अस्थाई लक्षण मान लिया गया है। हमारी राष्ट्रीय संपत्ति का 77% भाग सबसे अधिक धनी 10% जनसंख्या के हाथ में है और समानता का यह विस्तार पिछले कुछ समय से लगातार जारी है। आर्थिक विषमता के लिए लिहाज से भारत विश्व के दूसरे स्थान पर है।जबकि लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ संपदा के न्यायपूर्ण  वितरण की व्यवस्था होती है ताकि कोई अपनी आर्थिक शक्ति के बल पर दूसरों की हितों और अधिकारों का हनन ना कर सके।

क्या आर्थिक नीतियां देश के धनी वर्ग की पक्षधर है और हमारा शासन आबादी के बड़े हिस्से के बड़े हिस्से के लिए आर्थिक सक्षमता सुनिश्चित करने में लापरवाह है..?? नव उदारवादी दौर में असमानता निरंतर बढ़ती ही जा रही है पर हमारे राजनीतिक चिंता में यह प्रमुख एजेंडा क्यों नहीं बन पा रही है, इन सवालों का सीधा संबंध हमारे लोकतंत्र की सफलता से है।  कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था ऐसी व्यापक विषमताओं को देर तक नहीं ढो सकती क्योंकि आर्थिक समानता के साथ ही राजनीतिक और सामाजिक समानता के लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
ऐसा माना जाता है कि "आर्थिक विषमता तभी सही है जब वह सर्वाधिक गरीब की आय को बढ़ाने का मध्यम हो"
आज वंचित तबकों के उत्थान के लिए निर्धारित नीतियों-कार्यक्रमों की ठोस समीक्षा जरूरी है। उदार और गतिमान अर्थव्यवस्था के साथ शिक्षा व रोजगार के स्वतन्त्र अवसर  को स्थाई बनाने के साथ लोकतंत्र को बेहतर बनाने के लिए आर्थिक विषमता पर गंभीरता से विचार करना समय की मांग है

साहिर लुधियानवी की एक सेर है :

ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया
ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया,
ये दौलत की भूखे है रिवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है....

"विकास"  केवल आर्थिक वृद्धि हीं नहीं, आर्थिक वृद्धि और विकास में बहुत फर्क होता है,विकास एक"उद्देश्य" है और आर्थिक वृद्धि केवल माध्यम। विकास का मतलब यह है कि जीवन की गुणवत्ता बढ़ रही है व आम लोगों के जीवन में सुधार लाया जा रहा है,अजीब बात यह है कि स्वास्थ्य, शिक्षा व सामाजिक सुरक्षा जीवन की गुणवत्ता व आर्थिक विकास का आधार होने के बावजूद लोकतंत्र में इन मामलों की बात नहीं होती।

पिछले चार सालों में केंद्र सरकार ने सामाजिक निति में कोई रुचि नहीं ली,व्यावसायिक घरानों को निति निर्धारण के केंद्र में रख कर नई नीतियां बनाई गईं जिससे ग्रामीण भारत की जनता व युवा वर्ग में सरकार के प्रति घृणा काफी बढ़ी व लोकतंत्र में आस्था कमी हुई व लोग सोचने पर मजबूर हुए की आखिर किसलिए हम सरकारें चुनते हैं...?? ऐसी नीतिगत फैसले से लोकतंत्र की नींव कमजोर पड़ती जा रही है..😢😢
उपरोक्त वर्णित विभेदकारी सामाजिक स्थितियों के बीच सुबह सूरज उगने के साथ हीं जैव वनस्पतियों में हलचल शुरू हो जाती है,पत्ते अपनी बाँहें खोलने लगते हैं और फूल मुस्कुराने लगते हैं। इन्हीं के बीच एक और रंग खिलता है...बच्चों के स्कूल ड्रेस का रंग जो बिना किसी शोर~शराबे के मद्धम~मद्धम गाँव की पगडंडियाँ चलने लगता है। यह वह भारत है जहाँ बच्चे बासी भात या आधा पेट,बिना नास्ता और टिफिन के अधूरी किताब~काँपी को झोले में लटकाए सूरज के साथ दौर लगाते हैं। यह उदासीन भारत नहीं है,यह सपनों से भरा हुआ भारत है,जहां जिजीविषा है,संघर्ष है। शिक्षा के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व का अभाव बहुत बड़ी विडम्बना है। भले हैं आज हमारा भारतवर्ष वैश्वीकरण का भारत है,भले हीं आज हम वैश्विक बाजार की गिरफ्त में उदारवादी~पूंजीवादी तरीके से विकास की दौर में शामिल हो रहे हैं लेकिन इसकी गिरफ्त में चिकित्साशिक्षा को लेना समाज के लिए घातक होगा। इससे समाज मे हो रही विभाजन की खाई घातक होगी। ग्रामीणभारत के सुदूरवर्ती अंचलों के विद्यार्थियों और शहरों के विद्यार्थियों के शिक्षा के हर चरण में गहरा फर्क है। इसके बावजूद खुली प्रतियोगिता में दोनों को समान रूप से उतरना पड़ता है। शहरों में हर कोई प्राइवेट अंग्रेजी माध्यम की ओर रुख कर रहा है और सरकार भी शिक्षा के निजीकरण पर जोर दे रही है। लेकिन उन सुदूर ग्रामीणभारत के अँचलों में कौन है जो शिक्षा का निवेश करने जाएगा ? कौन गरीब ग्रामीण जनता है जो अपने व अपने बच्चों के लिए इतनी महंगी शिक्षा को खरीद सकेगा, बावजूद इसके ग्रामीण विद्यार्थी प्रतियोगिता परीक्षाओं में उन अभ्यर्थियों के साथ एकसाथ सम्मलित होते हैं व असफल हो जाते हैं, हों भी क्यों न...!! इन्हें न अच्छी प्राथमिक/माध्यमिक/उच्चतर शिक्षा मिलती हैं, न अच्छी किताबें, न अच्छे शिक्षक और न हीं उचित माहौल, कौन इन ग्रामीण भारत के अंचलों में शिक्षा के क्षेत्र में निवेश कर यहां के विद्यार्थियों को समुचित सस्ती शिक्षा व प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए सुलभ कोचिंग मुहैय्या कराएगा।ग्रामीण अंचलों के अधिकतर अभ्यार्थी तो अपने परिवार के भरण- पोषण के लिए स्वध्याय के साथ जीविकोपार्जन भी करते हैं जिस कारण इन्हें प्रतियोगिता परीक्षा के लिए खुद को तैयार करने में लंबा वक्त लग जाता है, समय लगना तो लाजमी है क्योंकि वक्त किसी का इंतजार नहीं करता वो अपनी निर्धारित गति से अनवरत चलता हीं रहता है। ग्रामीणभारत की ऐसी विषम परिस्थितियों की  स्थिति  में  प्रवेश परीक्षाओं में ऊपरी आयुसीमा का निर्धारण  क्या  ग्रामीण विद्यार्थियों  की  प्रतिभा  का  गला नहीं घोंटेगा ?  ये  तो  ऐसा  हीं  जैसे "हाथी, कौआ, मछली, कुत्ता आदि" जानवरों के बीच पेड़  पर  चढ़ने की प्रतियोगिता आयोजित हो  रही  हो...!!

सरकारी नीतियाँ ऐसी हों कि सबके लिए शिक्षा/रोजगार सुनिश्चित हों,ऊपरी आयुसीमा की आढ़ में कोई वंचित न रहें।

यदि इन ग्रामीण युवा अभ्यर्थियों की मानवता और राष्ट्रकल्याण/समाजकल्याण के लिये जिजीविषा, जिज्ञासा व जुनून है, ये अपने स्वध्याय के दम पर समाज के लिए कुछ नया करने का मद्दा रखते हैं तो हमारी स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व नौकरशाही व्यवस्था  प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए पूर्व निर्धारित पात्रता मापदंड में नित नए नए संशोधन कर इनका दमन क्यों कर रही है..??
क्या ये ग्रामीण युवा स्वतंत्र भारत के निवासी नहीं हैं..??
क्या ये किसी दूसरे देशों से निर्वासित होकर आये हैं..??
क्या इन्हें स्वतन्त्र भारत में अपनी स्वतन्त्र महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का अधिकार नहीं है..??
क्या हमारे देश की संघीय व्यवस्थान्तर्गत संवैधानिक अधिकार जैसे राइट ऑफ एडुकेशन, राइट ऑफ प्रोफेशन का इन युवाओं के लिए संविधान के पन्नों पर वर्णित केवल काले अक्षर मात्र हैं ..??
यदि नहीं तो इन्हें प्रतियोगिता परीक्षाओं चाहे वो शिक्षा पाने के लिए हों या रोजगार के लिए, में आयुसीमा निर्धारित कर वंचित क्यों किया जा रहा है...??

जबकि "एक दोष व्यक्ति की समृद्धियों में उसी तरह छिप जाता है जैसे चाँद की किरणों में कलंक ; परन्तु दारिद्रय नहीं छिपता। नहीं छिपता हीं नहीं, सौ-सौ गुणों को छा लेता है मतलब गुणों को नष्ट कर देता है"
तो क्या आधारभूत सुविधाओं से वंचित ग्रामीण भारत के प्रतिभावान युवा अभ्यर्थी की जिजीविषा, जिज्ञासा व जुनून घुट घुट कर मरते रहेंगे...??
क्या इनके अभ्युदय से चर्मोत्कर्ष लिए कोई ठोस नीति बनने के लिए और कितने युवा अपनी सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक विषमताओं की बलि चढ़ेंगे ?
अब पानी सर चढ़ कर बोल रहा है, युवा सोचने पर मजबूर हो रहे हैं कि आखिर हम अपने मताधिकार का प्रयोग कर लोकतांत्रिक सरकार क्यों बनाते हैं ?

हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के पुरोधाओं को, नौकरशाही व्यवस्था को उदारवादी होकर इन ग्रामीण युवाओं के लिए वैज्ञानिक सोच के साथ ऐसी नीतियाँ बनाएं जिससे "खो न जाएं ये तारे जमीं के" क्योंकि

"नहीं एक अवलम्ब जगत का आभा पुण्यव्रती की
तिमिर व्यूह में फंसी किरण भी आशा है धरती की"

सबको   मुक्त   प्रकाश   चाहिए
                  सबको   मुक्त  समीरण,
बाधा - रहित   विकास  ,    मुक्त
                   आशंकाओं  से  जीवन।
उभद्विज - निभ चाहते सभी नर
                    बढ़ना  मुक्त  गगन  में,
अपना चरम विकास खोजना
                    किसी  तरह  भुवन  में।

देश मे शांति, समृद्धि, परस्पर भाईचारे की जननी "सबका चर्मोत्कर्ष" हीं है, यही एक ऐसा अचूक हथियार है जिससे देश आगे बढ़ेगा, कोई कहीं शोषित न होगा, सभी अपने ईश्वर प्रदत्त गुणों सर धरती के आंचल में नित नए सितारे जड़ते रहेंगे व आने वाली पीढ़ी के लिए समृद्ध समाज उपहार में देते जाएंगे,

हमारे राष्ट्रकवि दिनकर जी लिखते हैं ;

जब तक मनुज मनुज का
           सुख भाग नहीं सम होगा,
शमित  न  होगा  कोलाहल,
            संघर्ष  नहीं   कम  होगा।

अतः आज ग्रामीण भारत के अभ्यर्थियों के लिए समानान्तर प्रणाली विकशित किये जायें, प्रतियोगिता परीक्षाओं में कोई ऊपरी आयुसीमा निर्धारित न हों, प्रवेश परीक्षा में आयुसीमा के बदले अवसरों की सीमा निर्धारित किये जाएं जिससे सभी विषमतापोषित ग्रामीण युवा अपने उच्चतम आदर्शों को पाने के लिए किसी भी आयु में अपने निर्धारित अवसरों का उपयोग कर सफल होकर राष्ट्रकल्याण में सपनी सहभागिता सुनिश्चित कर अपना योगदान दे सकें व अपने अनुज युवा साथियों के लिए प्रेरणास्रोत बन सकें।



(7) ग्रामीण भारत के शैक्षणिक स्तर की दुर्दशा और उसमें चर्मोत्कर्ष के गुंजाइश


भारत की ज्यादातर आबादी आज भी गांवों में बसती है इसलिए भारत में ग्रामीण शिक्षा का विषय अत्यंत महत्वपूर्ण है। ‘शिक्षा की वार्षिक स्थिति पर रिपोर्ट’ नाम के सर्वे से पता चलता है कि भले ही ग्रामीण छात्रों के स्कूल जाने की संख्या बढ़ रही हो पर इनमें से आधे से ज्यादा छात्र दूसरी कक्षा तक की किताब पढ़ने में असमर्थ हैं और सरल गणितीय सवाल भी हल नहीं कर पाते। इतना ही नहीं गणित और पढ़ने का स्तर भी घटता जा रहा है। भले ही प्रयास किए जा रहे हों पर उनकी दिशा सही नहीं है। सर्वे में इसे लेकर जो कारण बताया गया है वो एक से ज्यादा ग्रेड के लिए एकल कक्षा की बढ़ती संख्या है। कुछ राज्यों में छात्रों और शिक्षकों की हाजिरी में भी कमी आ रही है। यह कुछ कारण हैं जिनकी वजह से भारत में ग्रामीण शिक्षा विफल रही है।

रुक्मिणी बनर्जी निदेशक, प्रथम स्वयंसेवी संस्था प्रथम की सालाना रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की चिंताजनक स्थिति की तस्वीर उभर कर सामने आयी है. अधिकांश छात्र निचली कक्षा की किताबों का पाठ नहीं कर सकते, गणित के सवाल हल नहीं कर सकते. सरकारी विद्यालयों में पीने के पानी की समस्या बड़े पैमाने पर है. छात्राओं के लिए अलग टॉयलेट की व्यवस्था नहीं है. सारे तथ्य ग्रामीण इलाकों में सुधार की नयी कोशिश की जरूरत की ओर भी इशारा कर रहे हैं. इन्हीं बातों के मद्देनजर आज का इन दिनों...  आज से दस साल पहले हमारा समाज, सरकारें और हम सभी लोग बच्चों को स्कूल लाने में व्यस्त थे. चूंकि बच्चे स्कूल आते ही नहीं थे, इसलिए कोशिश यह हो रही थी कि किसी तरह बच्चे स्कूल आयें.  इसके लिए कुछ योजनाएं भी चलायी गयीं. लेकिन, दस साल बाद अब समाज को, सरकारों को और हम सब को यह समझ में आ रहा है कि सिर्फ बच्चों को स्कूल तक ले आना ही काफी नहीं है, बल्कि खुद स्कूल में भी साल-दर-साल तरक्की होनी चाहिए, स्कूल में सुविधाओं का निरंतर विस्तार होते रहना चाहिए, आदि. यानी अब हम लोग जागरूक हो रहे हैं, देर से ही सही. जागरूक होने का मतलब है कि सबसे पहले किसी समस्या को हम समझें-पहचानें कि आखिर वह है क्या. फिर उसके उचित समाधान के बारे में सोचें और नीति बनायें.  मुझे अब ऐसा लगता है कि समाज और सरकारों ने शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त इस समस्या को स्वीकार लिया है और इसे दूर करने के लिए कदम बढ़ा रहे हैं. इसलिए, आप देखेंगे कि बीते कुछ सालों में कई सरकारों ने अपने-अपने तरीके से अलग-अलग प्रयास किये हैं. बिहार और झारखंड राज्यों में शिक्षा के क्षेत्र में कई तरह के प्रयोग किये गये हैं. लेकिन, जो प्रयास या प्रयोग रह गया है, जिसे करने की सख्त जरूरत है, असर की रिपोर्ट उसी को रेखांकित करती है. असर की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुंचती दिखती है कि हमारी शिक्षा की बुनियाद में ही कुछ कमी है. यानी पहली से लेकर दूसरी-तीसरी कक्षा तक बच्चों के आधार को मजबूत करने की जरूरत है, ताकि इन तीन कक्षाओं के बच्चे अपने पाठ्यक्रम को पूरी तरह से न सिर्फ पढ़-समझ सकें, बल्कि उसके बारे में किसी भी सवाल का जवाब दे सकें.  यही वह नींव है, जिस पर देश में शिक्षा की बुनियाद टिकी हुई है. दरअसल, हमारी गलती यही रही है कि हमने बुनियादी शिक्षा (पहली से पांचवीं कक्षा) पर उतना ध्यान नहीं दिया, जिसका खामियाजा यह हुआ कि आगे चल कर इन बच्चों की पढ़ाई कुछ कमजोर हो गयी.  जाहिर है, बिना बुनियादी शिक्षा को मजबूत किये अगर हम आठवीं-दसवीं का रिजल्ट मजबूत करने की कोशिश करेंगे, तो यह वैसा ही है कि बिना पहली मंजिल को मजबूत बनाये हम उसके ऊपरी मंजिलों का भव्य निर्माण कर रहे हैं. अरसा पहले तक तो हमारी नीतियां ऐसी थी ही नहीं कि शिक्षा की बुनियाद को सबसे ज्यादा मजबूत किया जाये.  यह हमारी गलती रही है. लेकिन अब तो हमारे पास शिक्षा का अधिकार कानून तक है, फिर क्यों नहीं हम कुछ कर पा रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है. स्कूलिंग में हम अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देते हैं, लेकिन अब हमें ऐसी नीति बनानी चाहिए कि तीसरी कक्षा तक बच्चों को ऐसी शिक्षा मिले, जिससे कि वे एकदम सही-सही पढ़ना-लिखना और बोलना सीख जायें. इसके बाद तो आगे की कक्षाएं बच्चों के लिए आसान हो जायेंगी. दूसरी बात यह है कि सिर्फ बच्चों को फ्री में किताब दे देना या ट्रेंड टीचर की व्यवस्था कर देना ही काफी नहीं है, बल्कि टीचर को सपोर्ट करने की व्यवस्था भी हाेनी चाहिए. टीचर के ऊपर जो भी आधिकारिक लोग हैं, उनका सहयोग बहुत जरूरी है एक टीचर के लिए. आखिरी बात, मां-बाप को भी अपने बच्चों के लिए थोड़ा जागरूक होने की जरूरत है

शिक्षा की क्वालिटी और उसकी पहंुच भी ग्रामीण स्कूलों की चिंता का प्रमुख विषय है और वहां शिक्षकों की कम प्रतिबद्धता, स्कूलों में पाठ्य पुस्तकों की कमी और पढ़ने के सामान की कमी भी है। यंू तो सरकारी स्कूल हैं लेकिन निजी स्कूलों की तुलना में उनकी गुणवत्ता एक प्रमुख मुद्दा है। गंावों में रहने वाले ज्यादातर लोग शिक्षा की महत्ता को समझ चुके हैं और यह भी जानते हंै कि गरीबी से निकलने का यही एक रास्ता है। लेकिन पैसों की कमी के कारण वे लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में नहीं भेज पाते और शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों पर निर्भर रहते हैं। इस सबके अलावा कुछ सरकारी स्कूलों में पूरे स्कूल के लिए सिर्फ एक ही शिक्षक होता है और यदि वह भी काम पर ना आए तो स्कूल की छुट्टी रहती है। यदि इन स्कूलों में क्वालिटी के साथ साथ शिक्षकों की संख्या, वो भी प्रतिबद्ध शिक्षकों की संख्या बढ़ाई जाए तो इच्छुक ग्रामीण बच्चे और भारत देश कुछ महान काम करके अपने सपनों को साकार कर सकता है।

ग्रामीण भारत में कुछ सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा है जिससे छात्रों और शिक्षकों का अनुपात बिगड़ जाता है। अरुणाचल प्रदेश के कुछ दूरस्थ गांवों में 10वीं की कक्षा में 300 छात्र हैं यानि लगभग हर कक्षा में 100 छात्र। इससे चाहकर भी शिक्षकों का हर छात्र पर ध्यान दे पाना लगभग असंभव हो जाता है।उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडिसा और भी अन्य राज्यो के प्रत्येक  गांव में स्कूल भी नहीं है, यानि पढ़ने के लिए छात्रों को दूसरे गांव जाना पड़ता है। इसके चलते माता पिता अपनी बेटियों को स्कूल नहीं भेज पाते और भारत में ग्रामीण शिक्षा विफल रह जाती है।

गरीबी भी एक बहुत बड़ी बाधा है। सरकारी स्कूलों की हालत अच्छी नहीं है और निजी स्कूल बहुत महंगे हैं। इसका नतीजा यह रहता है कि माध्यमिक शिक्षा में सफल रहकर आगे पढ़ने के लिए काॅलेज जाने वाले छात्रों की संख्या कम हो जाती है। इसलिए गांवों में माध्यमिक स्तर पर ड्राॅप आउट दर बहुत ज्यादा है। सिर्फ वही माता पिता अपने बच्चों को माध्यमिक शिक्षा के बाद काॅलेज भेज पाते हैं जोे आर्थिक रुप से सक्षम हैं। यदि माता पिता बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए ना भेजें तो पिछले सारे प्रयास विफल हो जाते हैं। सिर्फ माध्यमिक शिक्षा पाने का मतलब होता है कम पैसों की नौकरी और व्यक्ति फिर से कभी ना खत्म होने वाली समस्याओं यानि पैसों के अभाव में गरीबी के चक्र में फंस जाता है।

ज्यादातर पाठ्यपुस्तकें अंग्रेजी में होती हैं, और क्योंकि ग्रामीण लोग अपनी देशी भाषा या हिंदी ही बोलते हैं इसलिए सारा लक्ष्य ही धरा का धरा रह जाता है। इसका नतीजा ये होता है कि छात्रों की पढ़ाई से रुचि खत्म हो जाती है। हालांकि गांवों में कुछ छात्र बहुत प्रतिभाशाली होते हैं और उनके पास व्यवहारिक ज्ञान का खजाना होता है और वे जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी जीना जानते हैं। ऐसे छात्रों की शिक्षा में पढ़ाई की किताबों को समझने में दिक्कत, सुविधाओं में कमी और गरीबी एक बाधा है।

गरीबी से ज्यादा बड़ा कारण क्वालिटी का मुद्दा है। छात्रों को समझने के लिए नहीं बल्कि पूर्व निर्धारित सवाल रटने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसलिए छात्रों को सत्र खत्म होने पर ज्ञान पाने से ज्यादा जरुरी परीक्षा पास करना हो जाता है। इसके अलावा सीबीएसई के नए नियम के मुताबिक चाहे छात्र के अंक कुछ भी क्यों ना हो उसे अगली कक्षा में भेजना अनिवार्य है। इसलिए ज्यादातर छात्र पढ़ाई के बारे में चिंता ही नहीं करते, जिससे शिक्षा का स्तर भी गिरता है। ना तो छात्र ना ही शिक्षक पढ़ाई में कोई रुचि दिखाते हैं जिससे भारत में सभी प्रयासों के बावजूद शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है।

भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाने की नींव प्राथमिक और ग्रामीण स्तर पर रखना जरुरी है ताकि शुरु से ही शिक्षा की क्वालिटी उत्कृष्ट हो। शिक्षा और पाठ्य पुस्तकों को दिलचस्प बनाया जाना चाहिए। ग्रामीण छात्रों के लिए पाठ्य पुस्तकें उनकी संस्कृति, परंपरा और मूल्यों से जुड़ी होनी चाहिए ताकि उनमेें पढ़ाई को लेकर रुचि पैदा हो। मुफ्त शिक्षा के बजाय ड्राॅप आउट के पीछे की वजह जानना चाहिए जो कि प्रगति के रास्ते में एक बड़ा रोड़ा है। सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार, शिक्षा की क्वालिटी, प्रतिबद्ध शिक्षक और बढ़ा हुआ वेतन, विकास का हिस्सा होना चाहिए।

शहरी और ग्रामीण छात्रों के बीच सिर्फ विकास या दिमाग का ही नहीं पर प्रारंभिक वातावरण, कौशल, सीखने की क्षमता, बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता और विभिन्न सुविधाओं की पहुंच एक बड़ा अंतर है। पाठ्यक्रम बनाने मेें इन सब बातों पर ध्यान देना चाहिए जो अलग होने के बजाय यह सिखाए कि पढ़ाया कैसे जाए, ताकि कुछ फर्क आए। वास्तविक ग्रामीण छात्रों को जो कि शिक्षा में रुचि रखते हैं उन्हें सक्षम बनाना चाहिए। हमारा देश और उसमें बसने वाली ग्रामीण आबादी विशाल है और एक या दो उदाहरणों से फर्क नहीं पड़ता इसलिए इन उदाहरणों को दोहराने की जरुरत है। इसके अलावा ग्रामीण भारत में बड़ी संख्या में स्कूलों की जरुरत है। हर स्तर पर हर स्कूल और छात्रों की सफलता का मूल्यांकन करना जरुरी है। समय पर मूल्यांकन से समस्याओं और उपलब्धियों पर रोशनी डाली जा सकती है। हम सबको इन सब समस्याओं का हल निकालने की जरुरत है, जिससे भारत में ग्रामीण शिक्षा से जुड़े हर मुद्दे को सुलझाया जा सके।
पिछले कई वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारें उच्च शिक्षा संस्थानों को बढ़ावा देने में बड़ा उतसाह दिखाती आई हैं। केंद्र सरकार शिक्षा रत्नों जैसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों और भारतीय प्रबंध संस्थानों की संख्या बढ़ाने में तथा भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे मेडिकल कॉलेज और अस्पताल खोलने में जुटी है। उसे विश्वास है कि संख्या बढ़ने से उच्च शिक्षा के इच्छुक अधिक से अधिक छात्रों को लाभ मिलेगा और इस आरोप को झुठलाने में मदद मिलेगी कि सर्वश्रेष्ठ पेशेवर संस्थान चुनिंदा सदस्यों वाले क्लब की तरह बन गए हैं। इस तर्क में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन इस बात पर बहस जारी है कि संख्या तेजी से बढ़ाने पर गुणवत्ता बिगड़ती है और कई शिक्षाविदों के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है। लेकिन कोई भी तर्क दिया जाए, सत्य यही है कि उच्च शिक्षा के संस्थानों को बढ़ावा देने के फेर में सरकार प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था पर पर्याप्त ध्यान देने में असफल रही है।

यह असफलता हर प्रकार से चौंकाने और हैरत में डालने वाली है। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे बुनियाद को मजबूत किए बगैर ही इमारत की ऊपरी मंजिलें चुन दी जाएं। अगर हमारे स्कूलों - विशेषकर ग्रामीण भारत से - उत्तीर्ण होकर निकलने वाले ज्यादातर छात्रों की स्थिति खराब (हालांकि रकम मिलने के बाद कागजों में यह बहुत अच्छी बता दी जाती है) ही रही तो उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के लायक समझ ही उनके पास नहीं होगी। विश्व के सर्वश्रेष्ठ कॉलेजों की वैश्विक रैंकिंग में भारतीय व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों के नहीं आ पाने पर चिंता जताने के बजाय इस बात पर फौरन ध्यान देने की जरूरत है।
यह याद रखना होगा कि स्कूलों से निकलने वाला प्रत्येक छात्र व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में नहीं जाता लेकिन उत्तीर्ण होने वाले हरेक छात्र के पास जीवन में आगे बढ़ने के लायक शैक्षिक कौशल होना चाहिए। लेकिन अगर वह कौशल ही ठीक नहीं है तो कोई उम्मीद ही नहीं होगी। अतः हमारे देश की शिक्षा प्रणाली में सुधार हेतु कुछ महत्वपूर्ण तरीके साझा कर रहे हैं। महाशय जिस देश की शिक्षा प्रणाली उच्च कोटि की होती है, वह देश बहुत तेज गति से विकास करता है। अत; प्रत्येक देश के विकास मे उस देश की शिक्षा प्रणाली का बहुत बडा योगदान होता है। अाज के समय मे भी भारत की शिक्षा प्रणाली बहुत अच्छी नही है। अाज के समय मे भारत की शिक्षा प्रणाली मे बहुत सी कमियाँ है जिनमे सुधार करना बहुत अावशयक है। यदि भारत को अधित तेज गति से विकास करना है तो भारत को अपनी शिक्षा व्यवस्था को उच्च स्तर की बनानी होगी है।


भारत सरकार द्वारा भारत की शिक्षा प्रणाली मे सुधार के लिए समय-समय पर अनेक प्रोग्राम चलाये जाते है। लेकिन इसके बाद भी भारत की शिक्षा व्यवस्था मे इतना सुधार नही हुअा है जितना होना चाहिए था। ये कुछ तरीके हैं जिनका प्रयोग करके भारत की शिक्षा प्रणाली में सुधार किया जा सकता हैं।

(१) .  ग्रामीण भारत शिक्षा मे सुधार की अविलम्ब बेहद आवश्यकता है। भारत मे ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा का स्तर बहुत बेकार है जिसके बहुत हीं दूरगामी दुष्परिणाम होंगे यदि स्थियों के लिए तुरंत कोई ठोस नीति न बनाई जाए। भारत मे ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा मे सुधार की बहुत अावशयकता है। भारत सरकार को ग्रामीण क्षेत्र मे अच्छे कुशल व अनुभवी शिक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए जो बच्चों के  गुणवत्तापूर्ण वास्तविक विकाश कर सकें।

(२.)  ग्रामीण स्कूलों को परंपरागत पाठ्यक्रमों को हटाकर अब कौशल अाधारित शिक्षा देनी चाहिए। जिस छात्र की जिस भी विषय मे दिलचस्पी हो उस छात्र को उस विषय की ही शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। कौशल अाधारित शिक्षा का सबसे बडा फायदा यह होगा कि छात्र अात्मनिभर बनेगे।  वैसे भारत सरकार ने भी अब अपना पूरा फोकस स्किल इंडिया प्रोग्राम पर कर रंखा है जिसकी रफ्तार सुदूर ग्रामीण अंचलों में काफी धीमी है। इस तरह के योजनाओं के क्रियान्वयन में काफी तेजी लानी होगी । भारत मे एेसे प्रोग्राम की बहुत अावशयकता है।

(३.)  शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक किया  जाना शैक्षणिक सुधार में शिक्षकों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। भारत में अधिकतम ग्रामीण स्कूलों में एक शिक्षक 60 -70  से भी अधिक बच्चों को पढा रहा है। आश्चर्य की बात है कि ग्रामीण स्कूलों में अभी भी दो-तीन शिक्षकों के भरोसे पूरी स्कूल है। एेसे में शिक्षक बच्चों को पढा तो पाता नही है बस बच्चों को घेरे रहता है। भारत में शिक्षा प्रणाली में सुधार करने के लिए इस अनुपात को कम करना बहुत अावशयक है। जबकि
एक शिक्षक 20 छात्रों को ही ठीक-ठाक पढा सकता है।

(४.) भारत के ग्रामीण ओर शहरी शिक्षकों में बहुत बडा अन्तर पाया जाता है। सरकार को एेसे प्रोग्राम चलाने चाहिए जिससे समय समय पर एक निश्चित अंतराल पर ग्रामीण और शहरी शिक्षकों को साथ-साथ प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। शिक्षकों को इस प्रकार प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए जिससे वे अपने अधिकारो और कर्तव्यों को जान सके। सरकार को शिक्षकों के प्रशिक्षण एव उनके परीक्षण की उचित व्यवस्था की जाएं।

(५.) ग्रामीण भारत के प्रत्येके ब्लॉक  के कम से कम दो दो स्कूल को मॉडल स्कूल (केंद्रीय विद्यालय) के तर्ज पर विकसित किये जायें, वो सारी सुविधा से सुसज्जित किये जायें जो उच्च कोटि के विद्यालयों में होती हैं। इससे अन्य विद्यालय प्रबंधन भी उसका अनुकरण करेंगे।

(६.) स्कूलों मे अब व्यावसायिक शिक्षा को एक मुख्य विषय के रुप मे पढाया जाना चाहिए। व्यावसायिक शिक्षा को तकनीकी शिक्षा भी कहा जाता है।

(७.) व्यावसयिक शिक्षा के लिए सब्सिडी और अनुदान- भारत में अधिकांश छात्र धन के अाभाव मे 10th  या 12th  के बाद अपनी शिक्षा को छोड देते है। अतः सरकार दा्रा एेसे छात्रों के लिए आर्थिक आधार पर सुलभ सब्सिडी और अनुदान की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। जिससे कोई भी गरीब छात्र अपनी पढाई को बीच मे ना छोड सके।

(८.) अाज का युग कंप्यूटर एव सूचना प्रघोंगिकि का युग है। अाज के समय मे प्रत्येक छात्र को निशुल्क बेसिक कंप्यूटर की जानकारी होना बहुत अावशयक है। अाज के समय मे हर क्षेत्र मे कंप्यूटर का प्रयोग हो रहा है। अतः सरकार को प्रत्येक स्कूल मे निःशुल्क बेसिक कंप्यूटर शिक्षा की उप्य़ुकत व्यवस्था करनी चाहिए।

(९.) अभिभावक जागरुक रहे तभी बच्चों की शैक्षिक प्रगति सम्भव है। सरकार को अभिभावकों को जागरुक करने के लिए भी प्रग्राम चलाने चाहिए। ग्रामीण अभिभावक जागरुक हो एव शिक्षक के प्रति स्नेह हो तो स्कूल का विकास सम्भव है, इसके लिए प्रत्येक 15वें दिन यानी महीने में दो दिन स्कूल में शिक्षक अभिवावक वार्तालाप किये जायें जिससे शिक्षक, अभिवावक के साथ ग्रामीण अंचलों में भी शिक्षा के प्रति सभी जागरूक होंगे, बारीकी को समझेंगे, एक चर्मोत्कर्ष का माहौल बनेगा जिससे शिक्षा का समग्र विकास होगा।

(१०.) भारत सरकार को सभी ग्रामीण स्कूलों में एक निश्चित अंतराल पर जिले के नौकरशाह को जाकर छात्रों की स्थितियों के मूल्यांकन की अनिवार्यता की जाय।

(११.) राष्टृीय आय का एक निशिचत भाग शिक्षा पर व्यय किया जाना चाहिएँ। प्रत्येक देश का विकास उस देश के नागरिकों की शिक्षा के स्तर पर बहुत अधिक निभ्रर करता हैं। इसलिए विकसित देशों मे अविकसित देशों की तुलना मे शिक्षा पर अधिक व्यय किया जाता हैं। अत: यदि भारत को अपनी शिक्षा के स्तर को उपर उठाना है तो भारत को अपनी राष्टृीय अाय का एक निश्चित भाग शिक्षा पर व्यय करना चाहिए

(१२.) सस्ती पुस्तकों के गुण व उत्पादन में सुधार- भारत में शिक्षा स्तर मे सुधार करने के लिए,  अच्छी पुस्तकों का प्रसार-प्रचार करना होगा अौर स्कूलो मे अच्छी अोर सस्ती पुस्तकें उपलब्ध करानी होगी। अौर पुस्तकों के गुण व उत्पादन में सुधार करना होगा।

(१३.) ग्रामीण स्कूलों में अनिवार्य ई-पुस्तकालय व ई क्लास ( कक्षा) का संचालन - अाज के समय में ई-पुस्तकालय व ई कक्षा बहुत हीं महत्वपूण है। ई-पुस्तकालय से छात्र कभी भी और कही भी पुस्तकों एव अावशयक अध्धयन सामग्री तक पहुच सकते है और उन्हें पढ सकते है। ग्रामीण स्कूलों में प्रत्येक दिन ई कक्षा का संचालन गुणवत्तापूर्ण अनुभवी शिक्षकों द्वारा की जानी चाहिए जिससे गाँव के बच्चे भी  आत्मविश्वासी, जिजीविषापूर्ण, दूरदर्शी व महत्वाकांक्षी हों

(१४.) खेल को महत्व- स्कूलों शिक्षा के साथ-साथ खेल को भी महत्व दिया जाना चाहिए। क्योंकि खेल हमारे जीवन का एक एहम हिस्सा है। खेल हमारे शारीरिक एव मानसिक दोनो ही विकास का श्रोत है। खेल बच्चों का दिमागी विकास करने में लाभकारी है। अतः प्रत्येक स्कूल में खेलों की व्यवस्था की जानी चाहिए।


नशेमन पर नशेमन तामीर किये जाएँगे,
बिजलियों का गिरते गिरते दामन खाक हो जाएगा
~ अज्ञात





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