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वास्तविक तिथि ➡️21.01.2020
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#खतों_का_सिलसिला... से अमृता का एक खत इमरोज़ के नाम...



प्यार के उन पथिकों के लिए.....
जिन्होंने राह के काँटे नहीं गिने.....
मंज़िल की परवाह नहीं की.....
किया तो सिर्फ प्यार......जिया तो सिर्फ प्यार......


अमृता प्रीतम की लेखनी उनका अपना जिया हुआ संसार था, उनका अपना अनुभव था. ऐसा अनुभव जिसकी साहिर ने नींव रखी थी और जिसे इमरोज ने अपने प्रेम से जीवन भर सींचा था.


मैं तुम्हें फिर मिलूंगी

कहां? किस तरह? नहीं जानती



अमृता प्रीतम की कविता की ये दो पंक्तियां उनके पूरे जीवन की कहानी को बयां करती है. 100 बरस के बाद एक साहित्यकार,लेखक, कवि को किस रूप में याद किया जा सकता है? अगर 100 साल बाद भी किसी साहित्यकार को याद किया जा रहा है तो उसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं?


अमृता प्रीतम को बतौर लेखक, कहानीकार, कवयित्री याद किया जा सकता है. लेकिन इससे इतर भी उनका जीवन विशाल अनुभव और कहानियां समेटे हुए हैं. सादगी भरा जीवन, अल्हड़पन, प्रेम के लिए तड़प, जिद्दीपन और कविताओं के ज़रिए इश्क को नया आयाम देना अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व को खास बनाता है.


31 अगस्त 1919 में पंजाब के गुजरावाला में करतार सिंह के घर अमृता का जन्म हुआ. पिता की वजह से घर में धार्मिक माहौल था. अमृता का पूजा-पाठ में मन नहीं लगता था. कम ही उम्र में माता की मृत्यु होने के बाद भगवान पर से अमृता का विश्वास उठ गया.


इसके बाद पढ़ाई के लिए वो लाहौर आ गईं. उनके पिता को लिखने-पढ़ने का काफी शौक था जिसकी वजह से उन्हें भी यह आदत लग गई. कविताएं, कहानियां लिखना अमृता का शौक बन गया.
16 साल की उम्र में ही अमृता की शादी प्रीतम सिंह से हो गई थी. पेशे से प्रीतम सिंह लाहौर के व्यापारी थे. बचपन में ही दोनों परिवारों ने दोनों की शादी तय कर दी थी. लेकिन कुछ सालों के भीतर ही वो अपने पति से अलग हो गईं. पति से तलाक लेने के बाद भी उनके नाम के साथ जीवन भर ‘प्रीतम’ जुड़ा रहा.


हिंदी के जाने-माने साहित्यकार सुरेंद्र मोहन पाठक, अमृता प्रीतम को याद करते हुए कहते हैं, ‘वो पंजाबी भाषा की एक प्रतिष्ठित लेखिका थी लेकिन उन्हें हिंदी में ज्यादा पढ़ा और सराहा गया. आज के ज्यादातर युवा यह जानते भी नहीं की अमृता प्रीतम पंजाबी भाषा की भी लेखिका थी.’ वो कहते हैं, ‘गद्य और पद दोनों पर अमृता प्रीतम की गज़ब की पकड़ थी.



अमृता इमरोज को लिखती हैं ;

इमरोज...

तुम्हारे और मेरे नसीब में बहुत फर्क है। तुम वो खुशनसीब इंसान हो जिसे तुमने मोहब्बत की, उसने तुम्हारे एक इशारे पर सारी दुनिया वार दी। पर मैं वो बदनसीब इंसान हूं जिसे मैंने मोहब्बत की, उसने मेरे लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया। दुखों ने  अब मेरे दिल की उम्र बहुत बड़ी कर दी है।  अब मेरा दिल उम्मीद की किसी खिलौनों के साथ नहीं खेल सकता।


हर तीसरे दिन पंजाब के किसी ना किसी अखबार में मेरे मुंबई में बिताए हुए दिनों का जिक्र होता है, वो भी बुरे से बुरे शब्दों में।  पर मुझे उनसे कोई शिकवा नहीं है क्योंकि उनकी समझ मुझे समझ सकने के काबिल नहीं है। केवल दर्द इस बात का है कि मुझे उसने भी नहीं समझा जिसने कभी मुझसे कहा था, मुझे जवाब बना लो सारे का सारा।  


मुझे अगर किसी ने समझा है तो वो तुम्हारी मेज की दराज पर पड़ी हुई रंगो की बेजुबाँ शीशियाँ हैं।  जिनके बदन मैं रोज पोछती और दुलारती थी। वो रंग मेरी आंखों में देखकर मुस्कुराते थे क्योंकि उन्होंने मेरी आंखों की जड़ का भेद पा लिया था। उन्होंने समझ लिया था कि मुझे तुम्हारी क्रिएटिव पावर से ऐसी ही मोहब्बत है। वो रंग तुम्हारे हाथों के स्पर्श के लिए तरसते रहते थे और मेरी आंखें उन रंगों से उभरने वाली तस्वीरों के लिए।

इमरोज वो रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श इसलिए मांगते थे क्योंकि " They wanted to justify their existance " मैंने तुम्हारा साथ इसलिए चाहा था कि मुझे तुम्हारी कृतियों में अपने अस्तित्व के अर्थ मिलते थे। ये अर्थ मुझे अपनी कृतियों में भी मिलते थे पर तुम्हारे साथ मिलकर ये अर्थ बहुत बड़े हो जाते थे।



तुम्हें याद है इमरोज,  तुम एक दिन अपनी मेज पर काम कर रहे थे।  फिर तुमने हाथ में ब्रश पकड़ा और पास रखी रंग की शीशियों को खोला। मेरे माथे ने न जाने तुमसे क्या कहा था, तुमने हाथ में लिए हुए ब्रश पर थोड़ा सा रंग लगाकर मेरे माथे से छुआ दिया।
न जाने वो मेरे माथे की कैसी खुदगर्ज माँग थी.....

अमृता प्रीतम की लेखनी उनका अपना जिया हुआ संसार था, उनका अपना अनुभव था. ऐसा अनुभव जिसकी साहिर ने नींव रखी थी और जिसे इमरोज़ ने अपने प्रेम से जीवन भर सींचा था.
अमृता अपने जीवन के आखिर तक इमरोज़ के साथ रहीं. इमरोज को अमृता ने 2002 में अपनी अंतिम कविता में लिखा था ;

मैं तुम्हें फिर मिलूँगी...

मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!


31 अक्टूबर 2005 में 86 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया. लेकिन अपने पीछे अमृता जो विरासत छोड़ गई हैं वो सदियों तक लोगों को याद रहेंगी.

ये कैसे हो सकता है कि अमृता जी को याद करें और साहिर लुधियानवी याद न आएं...!! साहिर के लिखे एक नगमे की एक पंक्ति है जिसके जरिये इस वक्त हम अपनी मनःस्थिति को व्यक्त कर रहे हैं ;

कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे  बेहतर  कहने  वाले  तुमसे  बेहतर  सुनने  वाले..

【 #कहने की जगह "लिखने" और #सुनने की जगह "पढ़ने" को पढ़ें.】

हम उन्हें आज भी याद कर रहें हैं और न जाने जाने अनजाने प्रेम के पथिक होंगे जिन्हें अमृता जी की लेखनी पढ़ मह्सुश करेंगे जो हमने खुद किया कि;

सोचता था दर्द की दौलत से एक मैं हीं मालामाल हूँ
देखा जो गौर से तो हर कोई रईस निकला...

आज हम अमृता जी को, उनकी लेखनी को, उनकी जिजीविषा को, उनके सच्चे प्रेम के प्रति समर्पण और निष्ठा को और वाणी को भावनाओं सहित⤵️⤵️








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