#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड_31
#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष
#एपिसोड_31
एक अनजान खत उनके लिए जो कभी अपने थे...
#यादें_जिंदा_रहेंगीं
बातें करनी थी आपसे बहुत सारी , इतनी कि बाकी की ज़िंदगी के हरेक पल उनके सहारे काट सकूं । जब अचानक फोन आपका आया तो नहीं जानता था कि ये पहली और आख़िरी बार है वरना सहेज लेता सब . . . . जो आपने कहा, किया ; पर अफ़सोस कि आपकी आवाज़ का एक क़तरा भी नहीं चुरा पाया । आपके होठों की हरकतें रह गयीं उसी पल में ।
बात शुरु करने में हमारी झिझक और आपकी पेशानी पर पड़ते बल और बालों में आपका वो हाथ फेरना सहेज नहीं पाया । ख़्वाबों में ख़ुद को हिम्मत देते हुए उस नीली शर्ट की बाहों को जो मोड़ा था हमने , वो सिलवटें तो रख लेनी चाहिए थी हमें । वो जब आपके फिर कभी न मिलने की बात कहते हुए हमारा गला रुंध जाता था और सांसे तेज़ हो जाया करती थीं , वो लम्हें रखने थे मुझे इस तसल्ली के लिए कि शायद आपको भी दर्द हुआ हो । मेरा हाथ छोड़ वापस मुड़ते ही वो जो एक आंसू हमारी बायीं आँख से गिरा था , जिसे हमने तिनके का कसूर बताया था , वो आपका पूरा समुंदर हो सकता था पर फिसलकर रह गया हमारी होठों पर हीं ।
कोई भी निशानी नहीं रख पाया तुम्हारी उस वक़्त अपनी बाकी उम्र के लिए । उस एक लम्हे का दु:ख इतना ज़्यादा था कि उसके बाद ज़िंदगी की कोई उम्मीद नहीं बची थी ।
पर अब जब याद करता हूं तो केवल शून्य मिलता है आपकी यादों की जगह । हैरानी सी होती है कि कैसे इतना वक़्त आपके साथ गुज़ारकर भी आपका कुछ भी नहीं छूटा मेरे पास । क्या आप इतनी सफाई से सब समेट ले गये थे या मैं ही आपमें इतना डूबा रहा कि ये ख़याल तक नहीं आया ? देखा तो नहीं था वास्तविक में आपको पर जो चेहरे का खाका तैयार किया था आपके चेहरे को छूकर , वो लम्स अब भूल चुकी हैं मेरी अंगुलियां ।
अब कोई चेहरा सा नहीं बन पाता ख़यालों में जिससे तसल्ली कर लूँ ।। आदतें आपकी कुछ भी याद नहीं अब और जो आपकी मौजूदगी के निशां थे वे धुंधले होकर मिट चुके हैं अब।
वापिस भी कई बार गया था उस जगह पर जहां आपसे आख़िरी बात हुई , पर वहां भी कुछ ना मिला । आपसे बातें करते वक़्त जिन - जिन जगहों / चीज़ों को हमारी नज़र ने छुआ था वे अब शायद वहाँ न हों । आपसे अंतिम बात करते वक्त मुझे छूकर गुजरी हवा ने जिन पेड़ की शाख़ों को हिलाया था , उनके पत्ते इसी पतझड़ में गिर गये हैं । हम जहां खड़े थे वहां की धूल हवा उड़ा ले जा चुकी हैं । उस एक पल में मर जाने की ख़्वाहिश के साथ दिन - ब - दिन बीती जा रही है . . . . ! !
वो आपका वक़्त था शायद तभी तो बातें भी सब आपने अपने हीं शर्तों पर कीं , हाँ मैं मानता हूँ बहुत बातें हमने गंवार व बेवकूफी भरी कि मगर इसका कारण आपको खो देने का डर भी तो हो सकता है न । आपको स्वयं खुद को मुझमें ढूंढने की जगह मुझे समझने की कोशिशें करनी थी । खैर जब आप हमें आपके साथ बीते समय में लंबे संवाद से सही - सही परख न पाए 【 . . . की दिल मेरा भी टूटा है, बहुत जख्म मुझे भी दिए हैं मेरी जिंदगी ने, दर्द हमें भी है, तड़पता मैं भी हूँ, रोता मैं भी हूँ, आँसुओं की धार गले से होती हुई मेरे सीने से गुजरती हैं 】 तो हमारा ये . . . ये सोचना की बातों के दरमियान आपने नहीं समझा , आत्मप्रवंचना हीं होगी ।
अब हमारे बीच बढ़ रही दूरियों को अपनी हृदय और आँखों को पत्थर बनाये महशुस व देख रहा हूँ , मगर देखिए ना वक़्त बदल गया है । झूठ , फरेब और काल्पनिकता से कोशों दूर रहने वाला मैं अब ख़ुद झूठ का पुलिंदा बनकर रह गया हूँ ।
हां , कुछ झूठी और कुछ सच्ची कल्पना कर कहानियां लिखने लगा हूँ मगर केवल इसीलिए कि अब आपके झूठ का बोझ हटा कर एक सच्चा किरदार बना पाऊँ जिसमें मुझे ख़ुद को ढूंढना न पड़े , जो मुझे ख़ुद में ढूंढ ले , इस झूठ से निकाल ले . . . और जिसके सहारे बाकी की जिंदगी पुरसुकूं, जी लूँ ।
बहुत तकलीफ़ होती है कहानियां लिखने में . . . .
#एपिसोड_31
एक अनजान खत उनके लिए जो कभी अपने थे...
#यादें_जिंदा_रहेंगीं
बातें करनी थी आपसे बहुत सारी , इतनी कि बाकी की ज़िंदगी के हरेक पल उनके सहारे काट सकूं । जब अचानक फोन आपका आया तो नहीं जानता था कि ये पहली और आख़िरी बार है वरना सहेज लेता सब . . . . जो आपने कहा, किया ; पर अफ़सोस कि आपकी आवाज़ का एक क़तरा भी नहीं चुरा पाया । आपके होठों की हरकतें रह गयीं उसी पल में ।
बात शुरु करने में हमारी झिझक और आपकी पेशानी पर पड़ते बल और बालों में आपका वो हाथ फेरना सहेज नहीं पाया । ख़्वाबों में ख़ुद को हिम्मत देते हुए उस नीली शर्ट की बाहों को जो मोड़ा था हमने , वो सिलवटें तो रख लेनी चाहिए थी हमें । वो जब आपके फिर कभी न मिलने की बात कहते हुए हमारा गला रुंध जाता था और सांसे तेज़ हो जाया करती थीं , वो लम्हें रखने थे मुझे इस तसल्ली के लिए कि शायद आपको भी दर्द हुआ हो । मेरा हाथ छोड़ वापस मुड़ते ही वो जो एक आंसू हमारी बायीं आँख से गिरा था , जिसे हमने तिनके का कसूर बताया था , वो आपका पूरा समुंदर हो सकता था पर फिसलकर रह गया हमारी होठों पर हीं ।
कोई भी निशानी नहीं रख पाया तुम्हारी उस वक़्त अपनी बाकी उम्र के लिए । उस एक लम्हे का दु:ख इतना ज़्यादा था कि उसके बाद ज़िंदगी की कोई उम्मीद नहीं बची थी ।
पर अब जब याद करता हूं तो केवल शून्य मिलता है आपकी यादों की जगह । हैरानी सी होती है कि कैसे इतना वक़्त आपके साथ गुज़ारकर भी आपका कुछ भी नहीं छूटा मेरे पास । क्या आप इतनी सफाई से सब समेट ले गये थे या मैं ही आपमें इतना डूबा रहा कि ये ख़याल तक नहीं आया ? देखा तो नहीं था वास्तविक में आपको पर जो चेहरे का खाका तैयार किया था आपके चेहरे को छूकर , वो लम्स अब भूल चुकी हैं मेरी अंगुलियां ।
अब कोई चेहरा सा नहीं बन पाता ख़यालों में जिससे तसल्ली कर लूँ ।। आदतें आपकी कुछ भी याद नहीं अब और जो आपकी मौजूदगी के निशां थे वे धुंधले होकर मिट चुके हैं अब।
वापिस भी कई बार गया था उस जगह पर जहां आपसे आख़िरी बात हुई , पर वहां भी कुछ ना मिला । आपसे बातें करते वक़्त जिन - जिन जगहों / चीज़ों को हमारी नज़र ने छुआ था वे अब शायद वहाँ न हों । आपसे अंतिम बात करते वक्त मुझे छूकर गुजरी हवा ने जिन पेड़ की शाख़ों को हिलाया था , उनके पत्ते इसी पतझड़ में गिर गये हैं । हम जहां खड़े थे वहां की धूल हवा उड़ा ले जा चुकी हैं । उस एक पल में मर जाने की ख़्वाहिश के साथ दिन - ब - दिन बीती जा रही है . . . . ! !
वो आपका वक़्त था शायद तभी तो बातें भी सब आपने अपने हीं शर्तों पर कीं , हाँ मैं मानता हूँ बहुत बातें हमने गंवार व बेवकूफी भरी कि मगर इसका कारण आपको खो देने का डर भी तो हो सकता है न । आपको स्वयं खुद को मुझमें ढूंढने की जगह मुझे समझने की कोशिशें करनी थी । खैर जब आप हमें आपके साथ बीते समय में लंबे संवाद से सही - सही परख न पाए 【 . . . की दिल मेरा भी टूटा है, बहुत जख्म मुझे भी दिए हैं मेरी जिंदगी ने, दर्द हमें भी है, तड़पता मैं भी हूँ, रोता मैं भी हूँ, आँसुओं की धार गले से होती हुई मेरे सीने से गुजरती हैं 】 तो हमारा ये . . . ये सोचना की बातों के दरमियान आपने नहीं समझा , आत्मप्रवंचना हीं होगी ।
अब हमारे बीच बढ़ रही दूरियों को अपनी हृदय और आँखों को पत्थर बनाये महशुस व देख रहा हूँ , मगर देखिए ना वक़्त बदल गया है । झूठ , फरेब और काल्पनिकता से कोशों दूर रहने वाला मैं अब ख़ुद झूठ का पुलिंदा बनकर रह गया हूँ ।
हां , कुछ झूठी और कुछ सच्ची कल्पना कर कहानियां लिखने लगा हूँ मगर केवल इसीलिए कि अब आपके झूठ का बोझ हटा कर एक सच्चा किरदार बना पाऊँ जिसमें मुझे ख़ुद को ढूंढना न पड़े , जो मुझे ख़ुद में ढूंढ ले , इस झूठ से निकाल ले . . . और जिसके सहारे बाकी की जिंदगी पुरसुकूं, जी लूँ ।
बहुत तकलीफ़ होती है कहानियां लिखने में . . . .



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