#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड_35
ये सच है कि हमारी व्यक्तिगत, सामुदायिक, राष्ट्रीय अथवा वैश्विक सोच की सफल कर्मनिष्ठ प्रतिभा अपने शैक्षणिक अथवा अनुसंधानिक भौतिक चर्मोत्कर्ष पर कितने हीं दम्भ क्यूँ न भर लें, आत्मविश्वासी हो जाएं, आत्मनिर्भर हो जायें, हम एक इंसान होने की राह में बहुत बहुत पीछे हैं.
वैज्ञानिक अनुसंधान का प्रमाणिक प्रयास कहता है कि धरती पर जीवन का प्रारंभ 2000 करोड़ वर्ष पहले हुई, तब से आज तक विभिन्न प्राकृतिक अथवा मानवजनित भीषण विभीषिका से जूझते हुए जीवन का कार्मिक विकाश होते हुए हम आज की सभ्य कही जाने वाली सभ्यता के पड़ाव में पहुँचे हैं.
वर्तमान में सभी प्रकार की प्रगति अपने चर्मोत्कर्ष पर है, चाहे अंतरिक्ष अनुसंधान की बात हो, मानव के भौतिक सुखों का विकल्पों की बात हो,शैक्षणिक, चिकित्सीय हो, सम्वाद के विभिन्न आयाम की बात हो अन्य संस्थानगत हो, अफसोस इतने चर्मोत्कर्ष के उपरांत असंख्य लोग भूख से असामयिक मृत्यु के शिकार हो रहे हैं, असंख्य लोगों जो जीने के लिए भी भोजन की दरकार है और बहुत सी हृदयविदारक विषंगतियाँ...
आज आर्थिक विषमता के कारण गरीब और अमीरों के बीच खाई बढ़ती जा रही है, ये विसंगतियाँ ही सभी समस्या की जड़ें हैं, इसी विसंगतियों से सभी प्रकार के सामाजिक कुवृत्तियों को प्राश्रय और प्रोत्साहन मिल रहा है.
आज समाज मे सबसे बड़ी समस्या यह है कि प्रतिस्पर्धात्मक जीवनशैली ने जनसमूह में एक दूसरे के प्रति करुणा, दया, क्षमा, विवेक, प्रेम, परोपकार के गुणों को बहुत तेजी से ह्रास कर रही हैं. हमें ज्ञात हो कि ये सभी गुण एक इंसान के गुण हैं, जो सभी जनों में अपने व्यापक स्वरूप में ओतप्रोत रहें. अफसोस ये गुण ही हम सभी मे क्षरित होते जा रहे हैं. इसकी व्यापक चर्चा यहां करना मैं जरूरी नहीं समझता , क्योंकि आप सभी पढ़ने वाले भी एक सामाजिक प्राणी है और अपने समाज मे एक विशिष्ट स्थान को बनाये हुए हैं और सामाजिक उतार चढ़ाव से भलीभाँति परिचित ही होंगे, ऐसा मुझे पूर्ण विस्वास है.
आज हम भले शैक्षणिक, आर्थिक व प्रद्योगिकी रूप से कितने ही समृद्ध हो जाएं, एक इंसान होने के लिए हम सभी को आज भी बहुत संघर्ष की जरूरत है, आंतरिक और बाह्य.
आम तौर पर जब कोई मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है, तो संबंधित समाज के लोगों के मुँह से अनायास ही निकल पड़ता है कि "आह ! अमुक आदमी बहुत अच्छा इंसान था".
जबकि आज की जरूरत है कि ये इंसानी खिताब हम जीवंत मनुष्यों को मिलने लग जाएं तो कितनी आत्मिक संतुष्टि मिलेगी ! कितना कठिन हो गया है जीवंत रहते इस खिताब को पाना. नहीं, ये कठिन नहीं हैं, बस अपने अंदर के मानवीय संवेदनाओं को संवर्धित करें, और उस मानवीय मूल्यों को अपने जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा बना लें, अपने व्यवहार में लाएं. ऐसा समाज स्थापित हो जहां सभी लोग वंचितों की मदद करें, उनकी गलतियों को क्षमा करें, उसकी अज्ञानता को दूर करने के हर सम्भव कोशिस करें.
भगवान कृष्ण श्रीमद्भागवद्गीता के १६वें अध्याय के पहले तीन श्लोक में कहते हैं ;
अभयं स्तवसनशुद्धिर्ज्ञान योगव्यवस्थिति :।
दान दमश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम।।
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे भरतवंशी अर्जुन! परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करने का भाव (निर्भयता), अन्त:करण की शुद्धता का भाव (आत्मशुद्धि), परमात्मा की प्राप्ति के ज्ञान में दृड़ स्थित भाव (ज्ञान-योग), समर्पण का भाव (दान), इन्द्रियों को संयमित रखने का भाव (आत्म-संयम), नियत-कर्म करने का भाव (यज्ञ-परायणता), स्वयं को जानने का भाव (स्वाध्याय), परमात्मा प्राप्ति का भाव (तपस्या) और सत्य को न छिपाने का भाव (सरलता)।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिपैशुनम।
दया भूतेष्वलोलुप्तवं मार्द्वं हृरचापलम।।
भावार्थ : किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाने का भाव (अहिंसा), मन और वाणी से एक होने का भाव (सत्यता), गुस्सा रोकने का भाव (क्रोधविहीनता), कर्तापन का अभाव (त्याग), मन की चंचलता को रोकने का भाव (शान्ति), किसी की भी निन्दा न करने का भाव (छिद्रान्वेषण), समस्त प्राणीयों के प्रति करुणा का भाव (दया), लोभ से मुक्त रहने का भाव (लोभविहीनता), इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्त न होने का भाव (अनासक्ति), मद का अभाव (कोमलता), गलत कार्य हो जाने पर लज्जा का भाव और असफलता पर विचलित न होने का भाव (दृड़-संकल्प)।
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानित।
भवन्ति सम्पद दैविमभिजातस्य भारत।।
भावार्थ : ईश्वरीय तेज का होना, अपराधों के लिये माफ कर देने का भाव (क्षमा), किसी भी परिस्थिति में विचलित न होने का भाव (धैर्य), मन और शरीर से शुद्ध रहने का भाव (पवित्रता), किसी से भी ईर्ष्या न करने का भाव और सम्मान न पाने का भाव यह सभी तो दैवीय स्वभाव (गुण) को लेकर उत्पन्न होने वाले मनुष्य के लक्षण हैं।
आइए एक इंसान बनें, अपने समाज को इंसानियत का चर्मोत्कर्ष प्रदान करें और जीवंत मनुष्यों को "इंसानियत का खिताब" दें जिससे हमारी वर्तमान और आने वाली पीढ़ियाँ ऐसे इंसानों से प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष प्रेरणा पाकर इंसानी गुणों से स्वयं को विभूषित करे, और एक अच्छा इंसान बनें, कदाचित जिस दिन ऐसा हो पायेगा, उस दिन निश्चय ही पुनः देवता धरती पर विहार को आएंगे और हम इंसानों की प्रशंसा करेंगे.
एक बार इंसान बनने का प्रयास कीजिये न, हमारे यशस्वी मनीषियों का ज्ञान कहता है कि "करने से होता है"
Comments
Post a Comment