#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड_36
वर्तमान समय की ये विडम्बना है कि एक दूसरे का चारित्रिक विश्लेषण करते समय अत्यंत जल्दबाजी कर बैठते हैं, आमुख व्यक्ति के जीवन मे घटित किसी विशेष परिस्थितियों में उसके द्वारा किये (पूर्ण रूप से अव्यक्त) व्यवहार के आधार पर उसके पूरे जीवन का मूल्यांकन कर बैठते हैं, जबकि किसी व्यक्ति के चारित्रिक विश्लेषण करते वक्त उसके जीवन की समग्रता का लोप नहीं होने देना चाहिए। क्योंकि किसी विशेष परिस्थितियों में हम एक विशेष प्रकार का आचरण करने लगते हैं। उस आचरण से हमारे सम्पूर्ण जीवन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। आइए जीवन के विभिन्न पहलुओं में कुछ का विश्लेषण थोड़ा थोड़ा करते हैं :
★ जब परिस्थियाँ आनन्ददाति रहती हैं तो हम विभिन्न अभिव्यक्ति द्वारा अपनी खुशी व्यक्त करते हैं। इस अभिव्यक्ति पर अब कोई ये कहने लगे कि ये अमुक आदमी हमेशा तरह खुश ही रहता है, बात बात पर मुस्कुराता ही रहता है, ये अतिउत्साही है, एकदम पागल आदमी है...
★जब परिस्थियाँ दुखदाई होती हैं, शोकजन्य होती है तो हम चिंतित रहते हैं, व्यथित रहते हैं, शोकाकुल रहते हैं और खूब रोते भी हैं। अब कोई ये कहने लग जाय कि ये एकदम बेकार आदमी है, हरदम दुखी ही रहता है, रोता ही रहता है, दुख आत्मा है ये आदमी
★हम अन्वेषी विषय पर एकाग्र होकर विचार करने लगते हैं ,और यदि उस वक्त कोई टोका-टाकी करना लग जाता है तो हम झल्ला उठते हैं, और उसे डांट बैठते हैं, पर कुछ समय उपरांत हम खुद अपने ही इस व्यवहार पर दुखी हो जाते हैं. क्योंकि परिस्थिति बदलते ही जब हम अपने किये व्यवहारों का समग्रता से विश्लेषण (चिंतन) करने लग जाते हैं तो अपनी गलतियों का भान होने लग जाता है और फिर हम पश्चाताप के साधनों को ढूंढने लग जाते हैं.
अब कोई ये कहने लगे कि ये आदमी खुद को बहुत काबिल समझता है, दम्भी है, संकुचित विचारधारा का है...
★ भयजनित परिस्थितियों में हम भयातुर हो जाते हैं, शारीरिकी में भी परिवर्तन हो जाता है जैसे रोएं खरे होना, दिल की धड़कन का बढ़ना, पसीना आना इत्यादि इत्यादि ( ये सभी परिवर्तन सामयिक होते हैं, इस परिवर्तन पर हमारा कोई वश नहीं होता, क्योंकि हमारे शरीर मे बहुत सी क्रियाएं होती हैं जिन्हें हम सोच समझ कर खुद से नियंत्रित नहीं कर सकते, ये अनियंत्रित शारीरिक क्रियाएं हैं, परिस्थिति के साथ शारीरिक बदलाव होंगे ही ) और उससे उबरने के लिए अविलम्ब प्रयास करने लग जाते हैं। अब ये देख कोई ये कहने लगे कि ये आदमी एकदम से डरपोक आदमी है...
और भी बहुत सी बातें हैं जिन्हें हम विश्लेषण कर सकते हैं. कहने का तातपर्य यह है कि कोई भी आदमी जीवन के विशेष परिस्थितियों में विशेष आचरण करता है, उस विशेष परिस्थितियों के सन्दर्भ में उसकी महत्वाकांक्षा होती है, जिजीविषा होती है, मजबूरी होती है, उसकी विवशता भी होती है, उसकी वैचारिक अल्पता भी हो सकती है...
कहते हैं कि किसी विशेष परिस्थितियों में मनुष्य परिस्थितियों का दास हो जाता है, केवल परिस्थितियों के अनुसार ही उसकी सारी क्रियाएं होने लगती है जैसे सोच-विचार-व्यवहार-गतिविधि इत्यादि सब कुछ। यूँ कहें कि आमुख आदमी विशिष्ट परिस्थितियों से उबरने की पिपासा के कारण पारिथितिजन्य स्वार्थी हो जाता है, उसे केवल खुद का चर्मोत्कर्ष दिखाई देने लग जाता है, खुद का ही केवल उत्थान नजर आने लगता है, और सारे अन्य विचार गौण हो जाते हैं। सच मे, मनुष्य स्वभावत: स्वार्थी ही हो जाता है, मगर ये उसकी समग्रता नहीं क्योंकि समग्रता में व्यापकता होती है, सम्पूर्ण विश्लेषण होता है।
मेरे कहने का तातपर्य ये कतई नहीं की आपकी बौद्धिकता में महानता नहीं है, प्रतिस्पर्धात्मक जीवनशैली के कारण आकलन कौशल में समयाभाव है, दैनन्दिनी में जीवन के किसी विशेष घटक को लेकर विवशताओं/चिंताओं के कारण व्यग्रता है, मेरा बस इतना भर निवेदन है कि जब भी किसी व्यक्ति के चरित्रिकी को लेकर धारणाओं का वर्गीकरण हो तो उसके जीवन की समग्रता को गौण न किया जाए.
यदि हम अपने सनातन संस्कृति के महान मानवीय धर्म की स्थापना करने वाले आदर्शों ( जिनसे हम प्रभावित होते हैं, उनके विचारों अनुगमन करते हैं..) के जीवनी व कार्यकलापों का विश्लेषण करेंगे तो हम पाएंगे कि उन्होंने भी अपने जीवन के अतिविशिष्ट समय मे असमान्य आचरण किये. मगर जब हम उनका आज विश्लेषण करते हैं, चर्चा करते हैं, व्याख्या करते हैं, विवेचन करते हैं तो केवल उन पहलुओं की नहीं, उनके जीवन की समग्रता का विश्लेषण करते हैं.
उदाहरण स्वरूप हम मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम और योगेश्वर श्रीकृष्ण को ही लें, सम्पूर्ण वेद , शास्त्र, उपनिषद कहते हैं कि श्रीराम और श्रीकृष्ण के गुणों की व्याख्या करने में साक्षात सरस्वती माता भी अक्षम हैं। जिनके जीवन का हर क्षण पृथ्वी ही नहीं तीनों लोकों में पूजनीय, अनुकरणीय और दैनन्दिनी के उच्चतम आदर्श को स्थापित करने वाली हैं, उनका जीवन, उनके कर्तव्यपथ के संघर्ष, उनके सम्वाद, उनके उपदेश हम सभी के उच्चतम आदर्श हैं, हम सभी उन आदर्शों को अनुसरण का प्रयास करते हैं, पाठ करते हैं, अपनो के साथ साझा करते हैं.
उन श्रीराम और श्री कृष्ण ने भी अपने जीवन के विशिष्ट परिस्थितियों में अतिविशिष्ट आचरण किये, ऐसा शास्त्रों में प्रमाण है (जिन्हें हम आज पढ़ते सुर यशस्वी मनीषियों के मुखारविंद से श्रवण करते हैं।) फिर भी जब ज्ञानीजन उनके समग्रता का विश्लेषण करते हैं तो वे श्रीराम को मर्यादापुरुषोत्तम और श्रीकृष्ण को योगेश्वर विशेषण से अलंकृत किये बिना नहीं रह पाते, ये बिल्कुल सत्य है, यह सत्य ही नहीं यथार्थ भी है। हम एक-एक कर दोनों आदर्शों की बहुत ही अल्प व्याख्या करते करते हैं, इसे समझिए ;
★ श्रीराम
प्रभु श्रीराम जन्म के समय सामान्य बालकों की तरह रोये, गुरु वशिष्ठ से शिक्षा ग्रहण के लिए ( राजमहल की सुख-सुविधा से दूर ) उनकी कुटिया में गए, अन्य सामान्य सहपाठियों की तरह सामान्य व्यवहार करते हुए शिक्षा ग्रहण किये, राजमहल लौटे, मुनि विश्वामित्र के निवेदन में मुनिरक्षार्थ साथ उनके आश्रम गए, मारीच- सुबाहु के सन्ताप से मुनि आश्रम को मुक्त किये, राजा जनक के निमंत्रण जनकपुर गए, उष्पवाटिक में जब सीताजी को देखा तो श्रीराम भी मोहित हो गए,और उनके छवि के विश्लेषण करने लग जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं कि ;
( बालकांड, दोहा - २३७)
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥
भावार्थ : (उधर) पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है।
जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥
भावार्थ : खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?
घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥
भावार्थ : फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)।
बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥
भावार्थ : अतः जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छबि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले।
वनगमन के दुसह कष्ट को सहकर दुखी होते हैं, चिंतित होते हैं, विह्वल होते हैं, व्यथित होते हैं...
श्रीराम पिता की मृत्यु का समाचार पाकर विह्वलता से खूब रोते हैं और बेसुध हो जाते हैं;
( अयोध्याकाण्ड, दोहा -२४६)
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा।।
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी।।
भावार्थ:-तदनन्तर वशिष्ठजी ने राजा दशरथजी के स्वर्ग गमन की बात सुनाई। जिसे सुनकर रघुनाथजी ने दुःसह दुःख पाया और अपने प्रति उनके स्नेह को उनके मरने का कारण विचारकर धीरधुरन्धर श्री रामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हो गए॥
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी।।
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू।।
भावार्थ:-वज्र के समान कठोर, कड़वी वाणी सुनकर लक्ष्मणजी, सीताजी और सब रानियाँ विलाप करने लगीं। सारा समाज शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गया! मानो राजा आज ही मरे हों॥
वनवास के दौरान एक दिन पंचवटी में श्रीराम को स्वयं फूलों से सीताजी का सृंगार करते देख इंद्र के पुत्र जयंत को लगा कि ये ही विष्णु के अवतार हैं ??
( अरण्यकांड, दोहा- १ से पहले)
एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥
भावार्थ:-एक बार सुंदर फूल चुनकर श्री रामजी ने अपने हाथों से भाँति-भाँति के गहने बनाए और सुंदर स्फटिक शिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने श्री सीताजी को पहनाए॥
सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥
भावार्थ:-देवराज इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर श्री रघुनाथजी का बल देखना चाहता है। जैसे महान मंदबुद्धि चींटी समुद्र का थाह पाना चाहती हो॥
सीताहरनोपरांत प्रभुश्रीराम की दशा तो मानो एक साधारण मनुष्य की भांति विलाप करने लगते हैं,
( अरण्यकांड, दोहा - २९ख के आगे)
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥
भावार्थ:- (वे विलाप करने लगे-) हा गुणों की खान जानकी! हा रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते! लक्ष्मणजी ने बहुत प्रकार से समझाया। तब श्री रामजी लताओं और वृक्षों की पंक्तियों से पूछते हुए चले॥
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥
भावार्थ:- हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों की पंक्तियों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल,॥
कुंद कली दाड़िम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥
भावार्थ:- कुन्दकली, अनार, बिजली, कमल, शरद् का चंद्रमा और नागिनी, अरुण का पाश, कामदेव का धनुष, हंस, गज और सिंह- ये सब आज अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं॥
श्री फल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥
भावार्थ:- बेल, सुवर्ण और केला हर्षित हो रहे हैं। इनके मन में जरा भी शंका और संकोच नहीं है। हे जानकी! सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गए हों। (अर्थात् तुम्हारे अंगों के सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभा के अभिमान में फूल रहे हैं)॥
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥
भावार्थ:- तुमसे यह अनख (स्पर्धा) कैसे सही जाती है? हे प्रिये! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती? इस प्रकार (अनन्त ब्रह्माण्डों के अथवा महामहिमामयी स्वरूपाशक्ति श्री सीताजी के) स्वामी श्री रामजी सीताजी को खोजते हुए (इस प्रकार) विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यंत कामी पुरुष हो॥
बलिवधोपरांत, वर्ष ऋतु बीत जाने पर श्रीराम एक आप आदमी की तरह चिंतित हो जाते हैं जिसे यूट्यूब के इस लिंक ( https://youtu.be/M85IsWa-F3Q )पर सुन सकते हैं। श्रीराम अपनी विवशता को लक्ष्मण से कहते हैं;
(किष्किंधाकांड, दोहा - १७ के बाद)
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥
भावार्थ:-वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई, परंतु हे तात! सीता की कोई खबर नहीं मिली। एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी जीतकर पल भर में जानकी को ले आऊँ॥
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई। तात जतन करि आनउँ सोई॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी॥
भावार्थ:-कहीं भी रहे, यदि जीती होगी तो हे तात! यत्न करके मैं उसे अवश्य लाऊँगा। राज्य, खजाना, नगर और स्त्री पा गया, इसलिए सुग्रीव ने भी मेरी सुध भुला दी॥
सीताजी की खबर लेकर जब हनुमानजी श्रीराम के पास आकर सारा वृतांत सुनते हैं तो श्रीराम की आंखों में जल भर जाते हैं और हनुमान से कहते हैं;
(सुन्दरकाण्ड, दोहा- ३१ के बाद)
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥
भावार्थ:-सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और वे बोले-) मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही गति (मेरा ही आश्रय) है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है?॥
इसीप्रकार जब लंका पहुंचने को रास्ता मांगते हुए समुद्र से तीन दिन तक अनुनय-विनय को समुद्र नहीं मानते तो एकदम अधैर्य कुपित हो लक्ष्मण से अपना धनुष बाण लाने को कहते हैं;
(सुंदरकांड, दोहा - ५७ के बाद)
लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥
भावार्थ:-ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान् की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥
जब मेघनाद की शक्ति लगने पर लक्ष्मण मूर्छित हो जाते हैं, तो लक्ष्मण का सर अपने गोद मे लेकर दारुण विलाप करते हैं जिसे इस यूट्यूब लिंक ( https://youtu.be/Y6mdP2HGkJA ) में सुन सकते हैं।
श्रीराम के जीवन के अन्य कई प्रसंग हैं जहां हम पाते हैं कि एक सामान्य मानव की तरह विलाप करते हैं, व्यथित होते हैं, विह्वल होते हैं, विस्मृत होते हैं और भी बहुत से भाव जिसे हम देखकर हम चकित हो जाते हैं और मुझ अज्ञानी तो क्या, एक बार तो सती माता भी भृमित हो गई थीं (जब राम सीता को ढूंढते हुए विलाप कर रहे थे ) कि ये भगवान राम हैं ??
उपरोक्त सभी परिस्थिति अतिविशिष्ट थीं तो श्रीराम ने भी अतिविशिष्ट आचरण किये, लेकिन केवल इन सभी पहलुओं से तो श्रीराम के चरित्रिकी का मूल्यांकन नहीं हो जाता !! यशस्वी मनीषी जब उनके चरित्रिकी का मूल्यांकन करते हैं तो उनके जीवन की समग्रता की व्याख्या करते हैं। मुनि वाल्मीकि कहते हैं कि ;
(अयोध्याकाण्ड, दोहा-१२६)
राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।
भावार्थ:-हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका 'नेति-नेति' कहकर वर्णन करते हैं॥
इसीप्रकार जब हम श्रीकृष्ण के जीवन की समग्रता का अवलोकन करते हैं तो वो भी अपने जीवन के अतिविशिष्ट परिस्थितियों में अतिविशिष्ट आचरण करते हैं, गोकुल/नन्दगाँव की कहानी हो, या श्रीराधा जी के साथ सम्बन्ध का वर्णन हो, या गोप-ग्वालों के साथ सम्बंध हो, या यशोदा के साथ सम्बन्धों का वर्णन हो, या मथुरा में लीलाओं की व्याख्या हो, या द्वारिका प्रस्थान का सन्दर्भ हो, यहां तक कि हस्तिनापुर कुरुक्षेत्र की बात हो, एकबार तो राष्ट्रकवि दिनकर भी ( रश्मिरथी, षष्ट सर्ग में ) आलोचना कर बैठते हैं ;
पाण्डव यदि पाँच ग्राम
लेकर सुख से रह सकते थे,
तो विश्व-शान्ति के लिए दुःख
कुछ और न क्या कह सकते थे ?
सुन कुटिल वचन दुर्योधन का
केशव न क्यों यह का नहीं-
"हम तो आये थे शान्ति हेतु,
पर, तुम चाहो जो, वही सही।
"तुम भड़काना चाहते अनल
धरती का भाग जलाने को,
नरता के नव्य प्रसूनों को
चुन-चुन कर क्षार बनाने को।
पर, शान्ति-सुन्दरी के सुहाग
पर आग नहीं धरने दूँगा,
जब तक जीवित हूँ, तुम्हें
बान्धवों से न युद्ध करने दूँगा।
"लो सुखी रहो, सारे पाण्डव
फिर एक बार वन जायेंगे,
इस बार, माँगने को अपना
वे स्वत्तव न वापस आयेंगे।
धरती की शान्ति बचाने को
आजीवन कष्ट सहेंगे वे,
नूतन प्रकाश फैलाने को
तप में मिल निरत रहेंगे वे।
शत लक्ष मानवों के सम्मुख
दस-पाँच जनों का सुख क्या है ?
यदि शान्ति विश्व की बचती हो,
वन में बसने में दुख क्या है ?
सच है कि पाण्डूनन्दन वन में
सम्राट् नहीं कहलायेंगे,
पर, काल-ग्रन्थ में उससे भी
वे कहीं श्रेष्ठ पद पायेंगे।
"होकर कृतज्ञ आनेवाला युग
मस्तक उन्हें झुकायेगा,
नवधर्म-विधायक की प्रशस्ति
संसार युगों तक गायेगा।
सीखेगा जग, हम दलन युद्ध का
कर सकते, त्यागी होकर,
मानव-समाज का नयन मनुज
कर सकता वैरागी होकर।"
पर, नहीं, विश्व का अहित नहीं
होता क्या ऐसा कहने से ?
प्रतिकार अनय का हो सकता।
क्या उसे मौन हो सहने से ?
एकबार तो द्वारिका में प्रभु कृष्ण, श्रीराधा को याद कर इतना रोये की हाथ पैर गल गए, जिसका परमसन जगन्नाथपुरी की प्रतिमा में मिलती है।
तो ऐसे कई लीलाएं है श्रीकृष्ण की,उन्होंने अतिविशिष्ट आचरण अतिविशिष्ट परिस्थितियों में कीं, परन्तु जब ज्ञानीजन उनके चरित्रिकी का वर्णन करते हैं तो उनकी समग्रता का विश्लेषण करते हैं और उन्हें योगेश्वर कहते हैं।
ऐसे हीं कामारि भगवान महादेव भी सती माता के दक्ष प्रजापति के यज्ञ में आत्मदाह के उपरांत अत्यंत विह्वल सुर रौद्र रूप में आ गए थे ;
( बालकांड, दोहा - ६४ )
सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥
भावार्थ:-सती का मरण सुनकर शिवजी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगुजी ने उसकी रक्षा की॥
समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥
भावार्थ:-ये सब समाचार शिवजी को मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दंड) दिया॥
अतः हम जब भी किसी मनुष्य का चरित्रिकी विश्लेषण करें, उनके गुण-अवगुणों की व्याख्या करें, धारणा बनाएं, तो उसके किसी एक-दो पहलुओं नहीं, उसकी समग्रता को ध्यान में रख निर्णय लें नहीं तो आमुख व्यक्ति के साथ इससे बड़ा अन्याय आप नहीं कर सकते।
उपरोक्त तर्कों के इतर एक और भी पहलू हैं जिसे हमसभी नकार नहीं सकते, वो है "समय.."
कहते हैं, मनुष्य समय का दास हो जाता है, जैसी परिस्थितियों के वश में वो होता है, उस अनुरूप उसको ढलना पर जाता है. हाँ, इतिहास में बेशक ऐसे कर्मनिष्ठ हुए जिन्होंने अपनी कर्मनिष्ठता से समय के रुख को भी पलट दिया अपने संघर्षशीलता, जुझारूपन, जिजीविषा और इच्छाशक्ति के बल पर, इस दौरान उनके भौंहे से टपकते पानी उनके चरण तक जा पहुंचे (असीम संघर्ष)।
विपरीत परिस्थितियों में मनुष्य की कर्मनिष्ठता भले ही प्रमाणित हो, उस दौरान किये व्यवहार-आचार-विचार समग्रता के परिचायक नहीं हो सकते। विपरीत परिस्थितियों में सामान्य मनुष्य स्वार्थी हो जाता है, केवल अपनी कुशलता ही प्रतिबिंबित होती है, क्योंकि वो विपरीत परिस्थितियों से जल्द से जल्द उबरना चाहता है।
कुछ असमान्य परिस्थितियों में मनुष्य डरपोक भी हो जाता है, डरपोक इसलिए नहीं कि वो वर्तमान परिस्थितिजन्य समस्याओं से भागना चाहता है, उससे डरता है, नहीं, ऐसा कतई नहीं, वो उस अनावश्यक परेशानियों से डरता है जो उसे मुख्य परेशानियों से उबरने की महत्वाकांक्षी विचार के राह में बाधा उत्पन्न कर सकता है। वैसे भी, विचारक कहते हैं कि जीवन में भय का भी सकारात्मक योगदान है, निर्भयता कभी कभी जानलेवा भी हो जाती है। क्योंकि निर्भय आदमी अति उत्साही होकर लापरवाही का शिकार हो सकता है और वही से उसके अपघटन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, कभी कभी इतनी त्वरित अपघटन प्रक्रिया होती है कि उसे सम्भलने का भी मौका नहीं मिल पाता।
आदमी कितना भी बड़ा और ज्ञानी हो जाय, जब उसे सच्चा स्नेह मिलता है तो वह एकदम निश्चल बच्चे की तरह व्यवहार करने लगता है। मनुष्य स्नेह, सम्मान और दुआओं के लिए हमेशा तृषित और पिपशित रहता है। रामचरितमानस में तुलसीदास जी लिखते भी हैं;
बैर अंध प्रेमहीं न प्रबोधु
अर्थात की बैर अंधा होता है और प्रेम को प्रबोध नहीं रहता,
और विस्तृत में कहें तो यदि किसी मनुष्य को किसी से बैर हो जाये तो उसे आमुख आदमी में केवल अवगुण ही दिखाई देता है और जब किसी मनुष्य को किसी से प्रेम हो तो उसे उस अमुक आदमी में सिर्फ गुण ही दिखते हैं। मनुष्य कैसा है, ये मायने आजकल बहुत कम प्रसांगिक होते हैं बल्कि देखने वाला आदमी किस नजरिये से देखता है वह महत्वपूर्ण हो जाता है। इस संदर्भ में मेरा मानना है कि मनुष्य को कभी भी केवल अपने नजरिये से सामने उपस्थित वस्तु , विचार या व्यक्ति को का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए,रुककर उसकी समग्रता पर आत्ममंथन करें, उसकी परिस्थितिजन्यता पर मनन करें, फिर कोई धरना या अभिव्यक्ति का आधार तय करें, ये अतिआवश्यक भी हैं और अमुक वस्तु, विचार और व्यक्ति के साथ यथार्थ न्याय भी।
बहुत से तर्क, बहुत से तथ्य और बहुत से अवयव हैं हमारे आसपास, जिसे अपनी तार्किकता की कसौटी पर कसकर और भी सम्वाद स्थापित कर सकते हैं इस संदर्भ में, परन्तु समयाभाव और व्यस्तता मुझे फिर भी असन्तुष्ट ही कर देती है अपनी अभिव्यक्ति के मार्ग में।
लिखा कम पर समझियेगा ज्यादा क्योंकि इसी में है आपके वैचारिकी की महानता और हमारी संतुष्टि।
फिर लिखेंगे, आप पढ़ियेगा और हमारी धृष्टता को क्षमा करिएगा क्योंकि लेखन-कौशल हमारे लिए केवल हमारे उत्साह का प्रकटीकरण मात्र है, कोई अकादमिक अनुभव नहीं।
🙏😘
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