#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड_43

औपनिषदिक विचारधारा से जब बौद्ध और जैन धर्म निकले, तब उन्होंने सन्यास को बहुत अधिक महत्व दे डाला और लोकाराधना का महत्व उसी परिमाण में न्यून हो गया। तब के भारतवासी कर्मठता को हीन, गृहस्थ्य को मलिन तथा सन्यास को देदीप्यमान धर्म समझने के आदी हो गए। 
तिलक हिंदुओं की पतनशीलता से दुखी थे। वे पराधीनता से क्षुब्ध थे। अतएव गीता की व्याख्या के बहाने उन्होंने समस्त हिंदू-दर्शन को मथकर उसे नवीन कर दिया तथा हिंदू-जाति में वह प्रेरणा भर दी, जिससे मनुष्य प्रतिकूल परिस्थितियों पर विजय पाता है, जिससे कर्तव्याकर्तव्य के निश्चयन में दार्शनिक सूक्ष्मताएँ उसके मार्ग का विरोध नहीं कर सकतीं तथा जिससे वह परिस्थितियों के अनुसार धर्माधर्म का ठीक-ठीक समाधान कर पाता है। 
गीता रहस्य में तिलक जी ने स्पष्ट घोषणा की कि गीता का उद्देश्य निवृत्ति नहीं, प्रवृत्ति का प्रतिपादन है। तिलक जी ने यह बतलाया कि योग का अर्थ गीता में कर्म है। योगी और कर्मयोगी दोनों शब्द गीता में समानार्थक हैं और इनका अर्थ युक्ति से कर्म करने वाला होता है।
 तिलक जी ने हिंदुओं  के सामने धर्म का व्यावहारिक पक्ष उपस्थित किया और उसे यह बात समझाई कि धर्म वही नहीं जो स्मृतियों में लिखा हुआ है, प्रत्युत,  योग्य उपायों के द्वारा आत्मरक्षा का प्रयास एवं अन्याय का विरोध भी धर्म का ही अंग है। 

हिंदू जाति लोकमान्य की चीर ऋणी रहेगी कि निवृत्ति का आलस्य चुराकर उन्होंने उसे प्रवृत्ति के पद पर लगा दिया।

शठम् प्रति शाठ्यं इति तिलक:। शठम प्रत्यपि सत्यं इति गान्धि:।

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