#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड_45
जिसने “प्रतीक्षा करना” प्रतिभा को विकसित किया है वह साबित करता है कि व्यक्तिगत विकास की एक महत्वपूर्ण डिग्री तक पहुंच गया है। यह आत्म-नियंत्रण, निराशा को सहनशीलता, संयम और वास्तविकता को परिप्रेक्ष्य में देखने की क्षमता को दबा देता है।
प्रतीक्षा करना एक विजय है यह केवल समय, अनुभव और स्वयं के साथ एक मरीज के काम के साथ हासिल किया जाता है। यह एक महान गुण है जो प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करता है और उसे मजबूत करता है। यह उत्कृष्ट दृष्टिकोण के साथ बुरे समय का सामना करने की अनुमति देता है।
महान दार्शनिक लाओ त्से कहते हैं ;
“कौन नहीं चाहता कि वह निराश न हो। और जो निराश नहीं होगा उसका अपमान नहीं होगा। इस प्रकार, सच्चे ऋषि शांति के लिए इंतजार करते हैं, जबकि सब कुछ होता है और वे इच्छाओं को नहीं भेजते हैं। इसलिए शांति और सद्भाव कायम है और दुनिया अपने प्राकृतिक पाठ्यक्रम का अनुसरण करती है ”।
शिकारी का इंतजार एक सक्रिय प्रतीक्षा है। चुनौती का हिस्सा बनें जिसका अर्थ है कि अपने शिकार को पकड़ने में सक्षम होना. उसे पकड़ने का एकमात्र तरीका यह है कि उसे छिपने से बाहर आने का समय दिया जाए और वह ऐसी स्थिति में हो जहाँ वह अभिनय कर सके।
सैमुअल जॉनसन कहते है: इंतजार करना आवश्यक है, हालांकि आशा हमेशा निराश होना चाहिए, क्योंकि आशा ही एक खुशी है, और इसकी विफलताएं, हालांकि अक्सर, इसके विलुप्त होने की तुलना में कम भयानक होती हैं। आशा अपने आप में एक खुशी है। इसका अर्थ है आशावाद और सकारात्मक उम्मीदों के साथ कल की ओर देखना. यद्यपि यह नहीं आता है कि क्या उम्मीद है, अकेले रवैया हमारे जीवन के लिए एक प्लस है. इसके विपरीत, निराशा कल के चेहरे में सभी भ्रम की मृत्यु है। इसके साथ, जीवन स्वयं मूल्य खोना शुरू कर देता है।
हेनरी डब्ल्यू लॉन्गफेलो कहते हैं : "सब कुछ उसी के लिए आता है जो इंतजार करना जानता है"।
कई बार हमें वो नहीं मिलता जो हम चाहते हैं क्योंकि हम पर्याप्त रूप से नहीं टिकते हैं। कभी-कभी इसमें समय लगता है और कभी-कभी यह समय काफी होता है। वह लंबा इंतजार हमें कार्य करने के लिए, या समय से पहले उद्देश्य को छोड़ने के लिए प्रेरित कर सकता है। हम यह भूल जाते हैं कि जितना अधिक हम दृढ़ रहते हैं, उतनी ही अधिक संभावना प्राप्त करते हैं, जितना हम चाहते हैं।
यह जानना कि कैसे प्रतीक्षा करनी है, परिपक्वता के साथ, संतुलन के साथ, चरित्र के साथ करना है। यह जीवन में सबसे कठिन जीत में से एक है, लेकिन सबसे प्यारी और सबसे समृद्ध में से एक भी है। जो इंतजार करना जानता है, वह जीना भी जानता है।
प्रतीक्षा में महीने क्या, पल भर की देरी भी सदियों के बराबर होती हैं लेकिन जीवन की समग्रता के संदर्भ से देखें तो एक वर्ष भी कम लगते हैं। पता नहीं चलता कैसे कट गए वो दिन। बेशक कुछ परेशानियों को हम अपने बड़बोलेपन के कारण मोल ले लेते हैं। संवादहीनता मन के दुख और संशय को कई गुना बढ़ाते और परिणामस्वरूप हमारे हृदय की पीड़ा असहनीय हो जाती हैं। इस पीड़ा को कम करने का दो ही साधन हैं, या तो प्रतीक्षा की अवधि समाप्त हो जाय या फिर उस अवधि में व्यापक संवाद होता रहे। आसमान में निराशाओं के बादल को देख मन बहुत विचलित सा हो जाता है, दिन में भी रात सा लगने लगता है। बादल मंडराते रहते हैं और अक्सर वो बरसते भी हैं, लेकिन बदल के बरसते ही आशा के सूरज फिर से चमकने लगते हैं, चाँद अपनी छटा बिखेर कर कहती है "थक कर बैठ गए क्या राही, अब मंजिल दूर नहीं"।
भविष्य में सुख मिलने या अच्छे दिन की आशा प्रतीक्षा बनती है। प्रतीक्षा गहन आस्तिक भाव है। पूर्वजों ने प्रतीक्षा के साथ धैर्य जोड़ा है क्योंकि प्रकृति की शक्तियाँ भी धैर्य का पालन करती हैं और प्रतीक्षारत रहती हैं। पृथ्वी, मेघ पर्जन्य की प्रतीक्षा में रहती हैं। बीज धरती पर पड़ते ही उगने की प्रतीक्षा करते हैं। पौधे पत्तियाँ धारण करने के लिए उतावले रहते हैं। पौधे वनस्पतियाँ पाकर जीवन चक्र सक्रिय करते हैं और फूलों के खिलने की प्रतीक्षा में होते हैं। सभी जीव प्रतीक्षारत रहते हैं। प्रिय मिलन की प्रतीक्षा और अप्रिय से बचने की भी। नदियाँ वर्षा की प्रतीक्षा में रहती हैं। बछड़ा अपनी माता गाय से मिलने की प्रतीक्षा में रहता है। रात्रि सूर्यास्त की प्रतीक्षा में रहती है कि कब सूर्य देव विदा हों और मैं अपनी प्रकृति के अनुसार अंधकार का सृजन करूँ। इसी तरह ऊषा भी रात्रि की प्रतीक्षा करती है। ऋग्वेद में रात्रि को ऊषा की बड़ी बहन बताया है। बड़ी बहन रात्रि विदा होती है। छोटी बहन ऊषा आ जाती है। ऊषा भी सूर्योदय की प्रतीक्षा करती है। प्रतीक्षा प्रत्येक जीव और मनुष्य की प्राकृतिक भावभूमि है। शुभ प्राप्ति की प्रतीक्षा में धैर्य महत्वपूर्ण है। प्रतीक्षा अधीर हो सकती है और धैर्ययुक्त भी। अधीर प्रतीक्षा में उतावलापन होता है। मनोदशा स्वाभाविक नहीं रहती। वैसे प्रतीक्षा की घड़ी सभी के लिए असहनीय होती है, सभी विह्वल हो जाते हैं, मन काफी व्यथित सा हो जाता है। प्रतीक्षा की घड़ी होती ही ऐसी है। मानव की तो बात ही क्या, जिन्हें (भी) हम आदर्श मानते हैं, जिनके आदर्शों का हम अनुसरण करते हैं, उनके जीवन में भी 'प्रतीक्षा' की घड़ी बड़ी दुखदाई व उद्विग्न कर देने वाली रही। यदि हम श्रीकृष्ण के जीवन का अवलोकन करें, श्रीराम के जीवन का अवलोकन करें, जिनके जीवन-संघर्ष आदर्शों के भी आदर्श हैं, हम पाएंगे कि वो भी प्रतीक्षा की घड़ी में काफी विचलित से हो उठे। प्रतीक्षा की घड़ी बड़ी व्याकुल कर देने वाली होती है।
मर्यादापुरुषोत्तम राम भी सीता के वियोग में कहते हैं ;
कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
भावार्थ:-मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
भावार्थ:-और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले।
और सीता त्रिजटा से कहती हैं ;
त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई।
दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥
भावार्थ:-सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूँ। विरह असह्म हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता॥
आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥
भावार्थ:-काठ लाकर चिता बनाकर सजा दे। हे माता! फिर उसमें आग लगा दे। हे सयानी! तू मेरी प्रीति को सत्य कर दे। रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने?
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन प्रसंग में और भी कई महत्वपूर्ण प्रसंग हैं जिसमे प्रतीक्षा ने अक्सर सभी पात्र को काफी विह्वल, व्यथित और विचलित से कर दिया है जैसे राम के वनगमन के उपरांत कौशल्या की प्रतीक्षा, उर्मिला की प्रतीक्षा, सबरी की प्रतीक्षा, सुग्रीव की प्रतीक्षा, सीताहरण के उपरांत पुनः सीता को प्राप्त करते कि प्रतीक्षा, सीता की प्रतीक्षा, मृतप्राय लक्ष्मण के लिए संजीवनी लेने गए हनुमान की प्रतीक्षा, भरत की चौदह वर्षों की प्रतीक्षा व अन्य और भी, जिसका स्मरण हमें अभी लिखते हुए नही हो रहा। जब हम वर्णित सभी पात्र के लिए प्रतीक्षा की अवधि काफी विह्वल करने वाले हुए, व्यथित करने वाले हुए और उन्हें काफी विचलित किया। एक बार तो प्रतीक्षा की अवधि से विचलित होकर भरत ने गुरु वशिष्ठ से जाकर कहा : हे गुरुदेव, अब हमसे पल भर भी प्रतीक्षा करना असहनीय हो गया है, राम भैय्या आएंगे या नहीं, मैं चिता जलाकर स्वयं को उसमे समर्पित कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर देना चाहता हूँ, अब से राज्य के शासन का भार आपको सौंपता हूँ।
इसपर गुरु वशिष्ठ भरत से कहते हैं : श्रेष्ठ कुल के वीरों को निराशा से हताश होकर समय से पहले मौत का आलिंगन नहीं करना चाहिए, परिस्थितियों के बदले के लिए रख पल भी यथेष्ट होता है, उस पल की प्रतीक्षा करो।
और भी बहुत से उदाहरण हैं जो जीवन के यथार्थ से हमारा साक्षात्कार करते हैं। समय की गति में कोई हस्तक्षेप नही कर सकते, उचित समय तक प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है।
पिछले कुछ सदी का ही अवलोकन करें, भारत के स्वतंत्रता संग्राम को ही देखें, पहला विद्रोह कब हुआ था, लेकिन स्वतंत्रता 15 अगस्त 1947 को हुई, इसकी प्रतीक्षा जन-जन को करनी पड़ी।
अतः हमें प्रतीक्षा जरूर करनी चाहिए। जीवन की समग्रता में महीने-वर्षों की प्रतीक्षा को हम नगण्य मान सकते हैं लेकिन एक पल काटना भी सदियों समान लगता है। प्रतीक्षा कोई न करवाना चाहता है और न ही करना चाहता है, सब नियति करवाती है। एक यथार्थ यह भी है कि प्रतीक्षा एक कसौटी भी है अपनेपन की, प्रेम की, समर्पण की, साहचर्य की, सौम्यता की, सुचिता की, स्वीकार्य की, संवेदना की...... प्रतीक्षा की कसौटी अपनेपन, प्रेम, समर्पण, साहचर्य, सौम्यता, सुचिता, स्वीकार्यता, और सम्वेदनशीलता में पारदर्शिता, परिपक्वता, पवित्रता और प्रमाणिकता लाती है। प्रतीक्षा यह बताती है की हम व्यक्ति, विचार व वस्तु के प्रति कितने शुद्ध मन हैं। प्रतीक्षा में के अहमन्यता का नाश कर उदार बनाती है जो कि मानवीय गुणों के उच्चतम आदर्श हैं। या यूँ कहें कि प्रतीक्षा हमें सच्चे मायने में हमें मानवीय गुणों से ओतप्रोत कर देती है और एक उदार मनुष्य, संवेदनशील मनुष्य बनाती है। प्रतीक्षा हम सभी को करनी ही चाहिए।
हमारी एक कविता ;
न किसी ने सराहा , न किसी का सहारा
मैं उतना ही जिया, जितना खुद को निखारा
लोग लुटते भी रहे, और लोग लूटते भी रहे
मैं जहाँ भी गया, हर तरफ बस यही था नजारा
मैं उतना ही जिया...
हर तरफ हाथों में डंडे, हर सर खून से लतपत
ऐसे भी कितनों का चलेगा कब तक गुजारा
मैं उतना ही जिया...
टूटती साँसें, चीखते स्वजन, बिलखती आवाजें
ऐसे हालात में इंशां का न होगा जीना गवारा
मैं उतना ही जिया...
हमें आपसे है ढेरों उम्मीदें, इसका खयाल रखियेगा
यों तो बहुत लोग मिले मुझसे, सबसे किया किनारा
मैं उतना ही जिया...
ये जो दुनियाँ है रंगबिरंगी, सब झूठे हैं, दिल सूने हैं
दो कदमों के साथ बस,सबने खुद को खुद हीं सँवारा
मैं उतना ही जिया....
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