#अभ्युदय_से_चर्मोत्कर्ष #एपिसोड_56

हमारी कविता संग्रह ;

" आपबीती "

जल था
तरल था
अविरल था
बहा करता था
सबके   अंतर   में 
अपनों के अपनेपन में

वेदनाओं की ठिठुरती ठंडक ने
बर्फ बना डाला
अचल, नुकीला सा
निर्जन सा पड़ा हुआ
किसी कोने में,
बागों में पत्तों तले,
किसी राही के पैरों तले
जाने-अनजाने किसी
कोमल पैरों को ठोकर लगी
खून बहे, चीख उठा वो
पत्थर हो क्या..!!
जटिल.! कायर..! स्वार्थी.!
सुनता रहा मौन हो
मैं मौन पड़ा सुनता रहा
सबकुछ जो प्रिय नहीं था
आक्रोश थी, दर्द था
शब्दों में कसक थी
पहले से पीड़ा से भरा था
वो भी, हाँ वो भी

काश मेरे भी मौन को
कोई सुन लेता, पढ़ लेता
जीवन मे सब मिलते हैं
पढ़े-लिखे विद्वतजन
पर मेरे सम्मुख आते हीं
अनपढ़ से हो जाते हैं
कोई न पढ़ पता मेरे मौन को
सचमुच अनपढ़.! भावनाशून्य.!
तटस्थ..! उदासीन.!!
क्या सच मे मित्रवत-
मानवीय भावनाएं नहीं.!!


अचंभित था मैं,
उनके शब्दों से नहीं
उसमे छिपी संवेदनाओं से
कितना दर्द छुपा था
अपनों के लिए उसके मन में
घायल थी हो
दिल के हर कोने से
सभी तृष्णा को समेटे
आकाश की ओर देखती
कपकपाते होठ बुदबुदा रहे थे
“रहम करो खुदा रहम…”

मुझे तरस आई खुद पर
खुद के पत्थर हो जाने पर
बद्दुआएं दी वेदनाओं को
नेपथ्य से वेदनाएं बोली
मैं भी अधीन हूँ विमर्श के
उस अनन्त के, निर्विकार के

मैंने पूछा, इतने दर्द क्यूँ ?
इतनी पीड़ा क्यूँ ?
पीड़ा के अभिव्यक्ति में
शब्दों का सूनापन क्यूँ ?
वेदना बोल उठी
अपनेपन की वन्दित किरणें जब
पड़ेंगी तन के ऊपर
यह पत्थर-तन फिर से
पिघलेगा, जल-तरल की तरह
सबके अंतर में, अविचल…

बस, तबसे सूखे पत्ते की ओट लिए
प्रतीक्षारत हूँ उस वन्दित किरणों के
जो मुझ पर पड़ेंगी
मेरे तन को अपनी ऊष्मा से
पिघलायेगी अपनी कोमल तरंगों से
अपनेपन से पत्थर फिर जल होऊंगा
फिर सबके अंतर में
विचरूँगा अविचल
धीर, वीर सा…

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