टेलीविजन : एक विकृति

अभ्युदय से चर्मोत्कर्ष, एपिसोड–65

लोग यदि 'टेलीविजन' देखना बन्द कर दें तो मुझे लगता है कि वर्तमान समाज में जो भयावह स्थिति बनी है, उस(भयावहता: राजनीतिक, सामाजिक व अन्य)में तत्क्षण आधे की गिरावट आएगी Tv सभी समाजिक विकृतियों की जड़ बनती जा रही है।
यह घर-घर―जन-जन में स्वयं व परस्पर संवाद-विमर्श की परम्परा, आकलन, दूरदर्शिता, खुद में निर्णय लेने की क्षमता आदि सामाजिक का गला घोंट रही है, बदले में यह अकेलापन, अति-अनुकरण की आदत, अनेक बीमारियों को आमंत्रित करता है।


Tv से मनोरंजन कम, जन-जन में सामाजिक/पारिवारिक विकृति ज्यादा आ रही है।
आज हर कोई समय की कमी से जूझ रहा है, ऐसे में tv रोज हर किसी का कम-से-कम 3-4 घण्टे बर्बाद कर रहा है। #स्मार्टफोन टीवी का हीं चलंत स्वरूप है।
ऑनलाइन (इलेक्ट्रॉनिक) सूचना की विश्वसनीयता भी संदेह के दायरे में रहती है, क्योंकि हर-कोई किसी खास एजेंडे के लिए कार्य कर रहा है। सूचना के लिए समाचार पत्र   व रेडिये अभी भी विश्वसनीय हैं।
आज समाजिक परिदृश्य इतनी बदतर हो चुकी है की यदि हम सोचें कि केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था, कार्यपालिका व न्यायपालिका नियंत्रित कर लेगी, आत्मप्रवंचना ही होगी, उपरोक्त तीनों व्यवस्था के साथ जन-जन की जागरूकता काफी अपरिहार्य है।

चिंतनशील संवेदनशीलता व परस्पर-विमर्श आवश्यक है। जन जन की सहभागिता समाज को सच्चे मायने में स्थायी, दीर्घकालिक और सर्वस्वीकृत समाधान के साथ कालक्रम में मंगलकामनाओं के साथ अग्रसर होगी। हम आशा करते हैं कि हम सभी जागरूक हों, संवेदनशील हों, “ सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय” की कामना हो। यदि हम ऐसा करने में सफल होते हैं तो समाज की बड़ी से बड़ी विकृति को समय रहते दूर कर सकते हैं।

टेलीविजन हमारे परिवार-समाज से आपस के विमर्श की वृत्ति को सोख रही है, लोगों में अकेलापन बढ़ रही है, लोग डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं। जिससे लोगों में सामाजिक व मानवीय मूल्यों का ह्रास बहुत तेजी से हो रहा है। इंसान होते हुए भी पशु-वृत्ति हावी हो रही है।
अतः टेलीविजन के समय पर अपनों के साथ, समाज में व अन्य सामाजिक स्तरों पर "सामाजिक सुरक्षा व मानवीय मूल्य " विषय पर विमर्श करें।
मंगलकामनाओं के साथ आपका दिन शुभ हो।

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